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Showing posts from January, 2025

प्रकृति का नियम

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  शाक से टूट गिरी ज़मीन पर  सब नया डगर अनजान मगर  दुनिया देखने का ये अवसर  मिलता नहीं शाक से जुड़कर ! सूखे पत्तों के ढेर में और भी थे  जो अनजान सही लगे अपने थे  खुली आँखों से हकीकत देखा   जीना असल में तभी तो सीखा ! प्रकृति का तो नियम स्वंतंत्र है जकड़े हैं सामाजिक मानदंड से  आडम्बर और खोकली दुनिया में  तभी तो हम इंसान कहलाये हैं ! ज़िन्दगी की बागडोर अलग है  परिचित हैं मगर जाना अलग है  हर कोई अपने में भी अलग है  विभिन्नता को एक सा क्यों देखें? ~ फ़िज़ा 

फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ...

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 रिश्ते ये कुछ हम बनाते हैं  तो कुछ यूँही मिल जाते हैं  कुछ का सिर्फ ग़म मनालो  कुछ का अफ़सोस के काश ! रिश्ते बनते हैं अपेक्षाएं भी  किसी के न्यायोचित किसी के नहीं   कभी लगता है सब खिलाडी हैं  और इस्तेमाल स्वयं हो रहे हैं ! हर रिश्ते की भी एक अवधि है  फिर माता-पिता ही क्यों न हों  कुछ संस्कार मदत करते भी हैं  पर जो संस्कार ही न पूरा करे ? मैं उन्मुक्त गगन की पंछी हूँ  रिश्ते भी हैं रिश्तेदारी भी की हैं  ज़िम्मेदारियों का एक दायरा है   फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ ! ~ फ़िज़ा 

सहानुभूति के अल्फ़ाज़

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  ज़िन्दगी के चंद हसीन पल ज़िन्दगी बनाने में सफल हैं  वर्ना यहाँ आये दिन तीखे शब्दों के बाण कम नहीं ! शुक्र है चंद ऐसे भी हैं जो न जानते हुए भी समझते हैं  वर्ना हर कोई अपनी अपेक्षाओं की थाली परोसे हैं ! कहाँ मिलते हैं लोग जो मैं को छोड़कर आप में बसे  यहाँ तो हर कोई खुदी में खुदा बना नज़र आता है ! जग से हर किसी को उठना है एक न एक दिन फ़िज़ा  यहाँ इंसान एक दूसरे की नज़रों से ही उठा जा रहा है ! रेहम! दोस्तों ऐसे भी हैं जो अंदर ही अंदर कूटते हैं  कुछ सहानुभूति के अल्फ़ाज़ नहीं तो इशारा ही दे दें ! ~ फ़िज़ा