लोगों की भीड़ थी पार्क में
जैसे कालीन बिछी ज़मीं पे
एक ठेला चलाता हुआ दिखा
जो भर-भर लाशें एक-एक
कोशिश करता बचाने की
डॉक्टर ने पुछा और कितने
सौ से भी ज्यादा कहा वो
फिर भागा लाश उठाने
लोगों को बचाने उधम सिंह !
~ फ़िज़ा
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
लोगों की भीड़ थी पार्क में
जैसे कालीन बिछी ज़मीं पे
एक ठेला चलाता हुआ दिखा
जो भर-भर लाशें एक-एक
कोशिश करता बचाने की
डॉक्टर ने पुछा और कितने
सौ से भी ज्यादा कहा वो
फिर भागा लाश उठाने
लोगों को बचाने उधम सिंह !
~ फ़िज़ा
दुःख क्यों होता है ये ऑंसूं क्यों नहीं रुकते २००५ में मिली थी तुमसे न सोचा कभी इस कदर स्नेह भर दोगी अपने वास्ते ! पहली मुलाकात और ढेर सारा...