सेहर से शाम शाम से सेहर तक
ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक
कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक
तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक
ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक
बहुत त्याग मांगती रहती हैं जब तक
है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक
इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक
ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक
खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक
एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक
आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक?
तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक
इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक
यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक?
~ फ़िज़ा
#हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९
3 comments:
सुन्दर सृजन। हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।
मानो हर एक पंक्ति मेरा सत्य हो। सृजनकर्ता का यही लक्ष्य होता है कि पाठक स्वयं को रचना में सम्मिलित कर ले।
जी आपने विषय वस्तु का चयन बेहतरीन किया है।
@yashoda Agrawal: आपका बहुत बहुत शुक्रिया मेरी इस कृति को सराहने और अपनी श्रंखला में शामिल करने का आभार !
@ सुशील कुमार जोशी : आपका बहुत बहुत शुक्रिया !
@ Prakash Sah: आपका बहुत -बहुत शुक्रिया इस तरह से सराहने का !
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