Thursday, September 03, 2015

कहाँ आगया, हाय इंसान!!!.....

नन्हा सा ही था मगर 
उसके भी थे हौसले निडर 
चाहता भी वो यही था 
जी लूँ किसी कदर 
बच सकूँ तो ज़िन्दगी 
नहीं तो मौत ही सही !

कितना सहारा हमने दिया?
कितनी मदत हमने दी ?
कुछ न कर सके तो क्या?
जीने का तो हक़ ही था 
काहे ऐसी नौबत लायी 
सहारे की आड़ में डूब गया 
जीने की एक चाह ने 
कहाँ से कहाँ इंसान को पहुंचा दिया ?

क्या था उसका कसूर?
इंसान होने की ये सजा?
क्यों नहीं वो पंछी बना 
उड़ जाता जहाँ दिल कहे 
जी लेता वो भी चंद साँसे 
क्या मिला इंसान बनके?
क्या किया इंसान ने ?
जहाँ एक -दूसरे के दुश्मन बने 
कहाँ आगया, हाय इंसान!!!
लानत है!

~ फ़िज़ा 

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