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Showing posts from April, 2018

चंद यादों के बगुले ...!

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मुझे घेर रही हैं चंद यादों के बगुले कभी बहुत दूर तो कभी बहुत करीब करते हैं भावुक कभी तो करते उत्सुक मुझे बढ़ जातीं हैं आकांशा जब जाते गहराई में   खो देते हैं आज मेरा जुड़ जाते हैं बगुले संग उड़ान भरने जग सारा आहट ने दस्तख दिया   रूबरू आज से हुआ   मुझे घेर रही हैं चंद यादों के बगुले कभी बहुत दूर तो कभी बहुत करीब ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

कैसा हैं ये इंसान जगत भी ...!

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एक कबूतर ने दूसरे से कहा क्यों ये इंसान इतने लड़ते हैं बात-बात पर हक़ जताते हैं हक़ जताकर भी कितने मजबूर हैं ये बात सुनकर दूसरे कबूतर ने कहा इंसान होकर भी ये मजबूर हैं ? किस बात का फिर हक़ जताते हैं? इस पर पहले कबूतर ने कहा बहुत ही मतलबी और स्वार्थी हैं किसी भी जगह जाकर रहते हैं और उस पर अपना हक़ जताते हैं अपने ही जैसे अन्य किसी को आने या रहने नहीं देते हैं हर समय आज़ादी का नाम मगर चारों तरफ पहरा रखते हैं इतना स्वार्थी और डरपोक हैं अपने ही जैसों को दूर करते हैं इंसान एक दूसरे के खून के प्यासे सीमाएं बनाकर रखते हैं एक जगह से दूसरे जगह हम तुम जैसे नहीं जाते हैं इनकी हर जगह, हर राज्य सीमाओं से बंधा हुआ है दूसरा कबूतर दया के मारे सोचता ही रहा गया तिहारे कैसा हैं ये इंसान जगत भी अकल्मन्द होकर भी जाने क्यों अपने ही लोगों संग यूँ व्यवहार करें, आखिर क्यों? ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

एक भयानक सपना ...!

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किसी के ख़याल में मैं आज भी हूँ कोई दूर है तो भी सोचता है मुझे सालों बात नहीं होती अन्य माध्यम से जानकारी रखली खुश हुए जब सवेरे की नींद में बुरा सपना जो देखा जिसमें मैं गंदे कमरे में फँसी हुई कहीं जकड़ी हुई लगे सवेरे-सवेरे फ़ोन करने हाल-चाल पूछने मेरी खैरियत की दुआ करने शायद जीने का अर्थ मिल गया शायद इस लायक तो मैं रही किसी को मेरी खैरियत की फ़िक्र, ख़याल, शुभिच्छा, धन्य हूँ मैं इस जीवन में कोई इस लायक तो समझा हमें दोस्ती वही है और सिर्फ वही ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

खोखले इंसान

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खोखले मकान खोखले दूकान खोखले अरमान खोखले इंसान खोखली हंसी खोखली दोस्ती खोखली सोच खोखली पहचान जीवन व्यर्थ है खोखलेपन में व्यर्थ है दिखावा दोहरी ज़िन्दगी स्वयं खोखलेपन में घूम हैं आज इंसान  ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

कब होगा इंसान आज़ाद?

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उसका सिर्फ पहनावा ही था जो उसे किसी राज्य से किसी जाती से तो किसी धर्म से किसी खास वर्ग से होने का पहचान दें गयी ! पास बुलाकर जब नाम पुछा तो सब कुछ उथल-पुथल तुम? हिन्दू? या फिर मुस्लमान हिन्दू से ब्याही ? या फिर कहीं तुम झूठ तो नहीं बोल रही? इंसान कितने ही आडम्बररुपी ज़ंजीरों से बंधा है और असहाय है कब होगा इंसान आज़ाद? इन सब से, आखिर कब? ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

नाबालिग थी वो !

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पहली बार जब बत्तमीज़ी की थी तभी बहुत ही अजीब लगा था समझ नहीं आया कैसे कहें किस से करें शिकायत जाने क्या ग़लत हो जाये लोगों को पता चले तो जाने क्या लोग कहेंगे इसी असमंजस में अपमान सहते रहे और फिर एक दिन जो हरकत की उसने सिर्फ चीखें निकली बाद में लाश ! कौन थी वो सबने पुछा नाबालिग थी वो ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

श्याम की मखमली चादर

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श्याम की मखमली चादर, जैसे ही उसने बिछाई, हल्का सा सुनेहरा रंग, हर तरफ लहराई, पंछियों को घर की याद आयी, देर-सवेर दिन ढलती नज़र आयी, सूरज का गोला झाड़ियों से, मानों जाने की इजाज़त मांगता हो, अपने आस-पास परछाइयों से अलविदा कहता हुआ चलने लगा, हर प्राणी को रात का एहसास दिलाता, श्याम की चादर होने लगी काली, इसी बहाने निशा लेने लगी अंगड़ाई! ~ फ़िज़ा #happypoetrymonth

मंडराते भँवरे ने कहा कुछ ...!

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झूमते फूंलों की डालियों पर मंडराते भँवरे ने कहा कुछ जाने क्या सुना कलियों ने मुँह छिपकर हँसने लगीं फूलों को शर्माते देख माली डंडी लेकर भागा भँवरे ने भी कसर नहीं छोड़ी लगा मंडराने माली के कानों में वही गीत जिसे सुनकर फूल शर्मायी कहाँ कोई रोक सका है दीवानों को जहाँ प्यार है वहां मस्तियाँ भी हैं बगीया में कुछ इसी तरह का जश्न फूलों के बीच चल रहा है ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

धुप - छाँव

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धुप - छाँव सूखा - गीला हरा - भरा काला - नीला मीठा - खट्टा अच्छा - बुरा ऐसा ही होता है ज़िन्दगी का गाना सुबह - शाम रात - दिन अँधेरा - उजाला हँसना  - रोना बोलना - रूठना यही है अब तो रहा अफसाना चलो ज़िन्दगी को आज़माके देखें वैसे भी यहाँ  आज हैं - कल नहीं ये भी है बेगाना ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

जो भी देना स्वार्थरहित करना ...!

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प्यासे को पानी और भूखे को खाना हर किसी की ज़रुरत,आये हैं तो जीना यहाँ क्या तेरा या मेरा करना जब सबको एक ही तरह है जीना किसी का नसीब ज़रुरत से ज्यादा मिलना किसी को ज़रुरत से भी कम संभालना अहंकार के लिए नहीं है कोई ठिकाना बस थोड़ी मदत कर प्यार निभाना चाहे जिस तरह भो हो सेवा करना अपने हिस्से का दान ज़रूर तुम करना जो भी देना स्वार्थरहित करना नाम और प्रसिद्धि के लिए कुछ मत करना व्यर्थ का है दान-पुण्य का काम वर्ना ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

चाँद ही अपना लगा...!

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आसमान को आज गौर से देखा कभी चाँद और बादल तो पंछी मगर आसमान को कम ही देखा चाँद ने अपनी अदा से खींचा बादलों ने अपनी उड़ान से सींचा पंछी हमेशा गीतों में उलझते रहे और आसमान को कम ही देखा आज नज़ारे कुछ अलग थे समां भी कुछ यूँ ज़मीन से जुडी यंत्रों को सजाकर आसमान से दोनों का संगम कुछ यूँ हुआ आसमान को आज करीब से देखा चाँद को नज़रों के करीब देखा कुछ पल के लिए घर अपना लगा सितारों को भी जी भर के देखा शाम की रंगत में छिपे थे जो अँधेरा होते ही सबको देखा आसमान को आज गौर से देखा चमकीले सितारों को देखा युरेनस, सीरियस ग्रहों को देखा जितने भी करीब से उन्हें देखा उनमें सिर्फ चाँद ही अपना लगा आसमान करीब से अच्छा लगा सितारे वैसे भी दूर ही लगे अब उनसे कोई गिला भी नहीं मेरे चाँद से तो दूर ही लगे आसमान करीब से अच्छा लगा ! ~ फ़िज़ा #happypoetrymonth

जीने का मज़ा लूट लेंगे ज़िन्दगी !

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जितना सताएगी तू ज़िन्दगी उतना ही प्यार करेंगे ज़िन्दगी सितम हर तरह के तू ढायेगी तब्बसुम से सेह लेंगे ज़िन्दगी कठिनाईयाँ तो कई आएँगी उतना ही कायल हमें पायेगी हर घूँट में कड़वाहट भरी होगी ज़हर पीने में मज़ा तभी आएगी जितना हमें तू रोज़ तड़पायेगी जीने का मज़ा लूट लेंगे ज़िन्दगी कौन जीता है जीने के लिए ज़िन्दगी तुझे झेलकर देखना है, क्या है ज़िन्दगी ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

ऐ 'फ़िज़ा' चल दूर ही चलें कहीं !

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इस जहाँ में कोई किसी का नहीं पता है तब क्यों आस छोड़ते नहीं नकारना ही है हर तरह जहाँ कहीं गिरते हैं क्यों इनके पाँव पर वहीं कोशिशें लाख करो सहानुभूति नहीं क्यों इनकी मिन्नतें करते थकते नहीं मोह-माया से अभी हुए विरक्त नहीं बंधनों से अपेक्षा भी कुछ हुए कम नहीं बंधनों को छुटकारा दिला दें कहीं  वक्त आगया है बुलावा आता नहीं ऐ 'फ़िज़ा' चल दूर ही चलें कहीं प्यार न सही नफरत करें भी नहीं ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

वक्त बे वक्त, वक्त निकल चूका !

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वक्त बे वक्त, वक्त निकल चूका सोचता हूँ मैं किधर जा चूका? समय का क्या है चलता ही रहा मुझे साथ क्यों लेकर चलता रहा? जाना है वर्त्तमान से भविष्य की ओर मुझे क्यों नहीं छोड़ दिया भूतकाल में? वक्त भी बड़ा अजीब खिलाडी है खेलते-खेलते हमें संग क्यों ले गया? क्या कहें वक्त-वक्त की बात है आजकल हमारा वक्त ही खराब है! ~ फ़िज़ा   #happypoetrymonth

मेरा हर गुनाह अक्षम्य है!

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मुझे सब तोहमतें मंज़ूर हैं, मेरा हर गुनाह अक्षम्य है, मेरा अस्तित्व ही भ्रष्ट है, मुझे मेरी हर सज़ा मंज़ूर है, मुझे मार दो या काट दो, मुझे हर रेहम मंज़ूर है, यूँ जीना इस तरह मेरा, कम नहीं किसी दंड से, मौत मेरे लिए है रेहम, पता है न मिलेगी वो मुझे, किये हैं जो दुष्कर्म मैंने, जाएगी मेरे संग रहने, खुद को न यूँ सज़ा दो, ये बहुत कठिन मेरे लिए, रेहम करो ज़िन्दगी पर, जुड़े हैं ज़िंदगानी तुम पर, ख़ुशी से सींच लो तुम, जीवन अपना संवारकर ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

दर्द होता है सीने में मेरे भी मगर ...!

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तड़पता है दिल किसी को देख के कोई माने या न माने दुख होता है ! कभी चाहा नहीं जानकार क्रूरता अनजाने में ही ग़लती हो जाती है ! दर्द होता है सीने में मेरे भी मगर कैसे इज़हार करूँ जब मानोगे नहीं ! किसे सज़ा दे रहे हो ये जानते नहीं प्यार करते हैं तभी तो दुखता है दिल ! क्यों बैर द्वेष से जीना है ज़िन्दगी जब कुछ पल की ही है ज़िन्दगी ! जो कहो करने के लिए है तैयार फ़िज़ा सब छोड़कर बस हुकुम तो करो ज़रा !   ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

शर्मसार दुर्भाग्य

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अमानवीय क्रूर जघन्य लाचार मायूस मनहूस बेबाक शर्मनाक खूंखार सर्वनाश हिंसक हैवान बलात्कारी जानवर अन्याय असहनीय शर्मसार दुर्भाग्य बेटी माता-पिता मजबूर इंसान ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

नारी जाती का कोई सम्मान नहीं है!

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किताबों में पढ़ा था ऐसा भी एक ज़माना था औरत से ही जीवन चलता और घर भी संभलता था ! फिर एक ज़माना वो भी आया नारी शक्ति, नारी सम्मान का एक चलन ऐसा भी आया ऊँचा दर्ज़ा और सम्मान दिया ! फिर भी नारी का ये हाल रहा "अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी आँचल में है दूध, आँखों में पानी" हाड-मांस की वस्तु बनी नारी! फिर ये भी ज़माना आया एक समान एक इंसान का नारा आया जवान-बूढ़े-बच्चे सभी एक समान फिर बलात्कार क्यों स्त्री पर ढाया? मेहनत औरत भी करे, जिम्मेदारी भी ले औरत कंधे से कन्धा मिलाकर चले बस एक ही वजह से वो शिकार बने दरिंदे औरत को हवस की नज़र से देखे ! पढ़ा है बन्दर से इंसान बना पर बन्दर हमसे अक्कलमंद निकला बोलना नहीं सीखा तो क्या हुआ प्यार-मोहब्बत का इज्ज़्हार तो आया ! इंसान अपनी बुद्धि से मात खाया अपने ही लोगों को समझ न पाया औरत को समझने का भाग्य न पाया बन्दर से इंसान दरिंदे का सफर पाया! किसको दोश दें ऐसा वक़्त आया बलात्कारी या उसको आश्रय देने वाला गुनहगारों को सज़ा दें तो क्या दें हर शहर हर गली की कहानी है ! "अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी आँचल में है दूध, आँखों में पानी" मैथिलि जी का लि...

यादों की बारात कुछ यूँ निकले...!

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यादों की बारात कुछ यूँ निकले बरसों भुलाये किस्से चले आये वो पल जब इतने बड़े शहर में अकेले नौकरी ढूंढ़ने हम निकले, चारों तरफ मायूसी के आसार निकले ! रात भर बाइबिल से किस्से निकले उसके बाद प्रार्थनाओं के लगे मेले हर बात पर यीशु के गुणगान मिले धर्म बदलने के और उसके फायदे सुने हर कोई अपनी जेबें भरने में तुले ! वो पल भी आया जब सौदे होने लगे यीशु के गुणगान को अनेक भाषाओँ में लिखें वक्त मिलने पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाएं रसोई में साफ़-सफाई और सब्जियां काटें किराया देकर भी नौकरों सा काम करवाएं ! ऐसा भी एक पल था जब लोग हम से मिले सूरत पर लिखवा के आये थे जो चाहे करलें अच्छाई करने और नेक रहने की सज़ाएं मिले घिसे बहुत पापड़ वक़त के रहे हमेशा सताए एक चीज़ नहीं खोयी कभी हौसला बचाये रखे ! ~ फ़िज़ा   #happypoetrymonth

वर्षा की बौछार...!

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शाम अकेली थी थकी-जीती ज़िन्दगी, हारी नहीं थी ;) बच्चों से बतियाकर, अपने कुत्ते के संग खेलकर, जब ख़याल आया, गरम-गरम फुल्के, और वसंत-प्याज़ की सब्ज़ी, मारे भूख के दौड़ने लगे चूहे, फिर एक न देखा इधर-या उधर, जैसे ही खाने बैठी, वर्षा की बौछार, लगी भूमि को तृप्त करने में, जब तक प्यास रहे अंतर्मन में, तब तक ही रहे कीमत सब में ! ~ फ़िज़ा

इक्कीस साल पहले मुझे क्या पता था...!

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इक्कीस साल पहले मुझे क्या पता था, मैं कहाँ रहूंगी और क्या कर रही हूँगी, इक्कीस साल पहले अपना शहर छोडूंगी, वो भी अकेले बिना किसी के सहारे, सोचा न था कभी इतना लम्बा सफर, ज़िन्दगी जाने किस मोड़ ले आये, मोड़ का क्या हर तरफ मुड़ती है, बस ज़िन्दगी जाने किस से जोड़ती है, किसे वजह और किसे अपना बनाती है, फिर नए लोग और नए नाते पनपते हैं, ऐसे ही दुनिया में लोगों से लोग मिलते हैं, जाने कहाँ होंगी इक्कीस साल और बाद, यहाँ, वहां या फिर किसी नए देश में, ज़िन्दगी साथ देती है तब तक चलेंगे, नए लोगों से नए रिश्तों से सजायेंगे सफर, अभी बहुत दूर मुझे और जाना है, इक्कीस साल का नज़ारा और देखना है, शायद तब लिख सकूँ या न लिख सकूँ, यादों के भवंडर में यूँ ही खो जाना है ! ~ फ़िज़ा   #happypoetrymonth

काश! लौट आता वो मधुर जीवन !

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गगन में खुली आसमान में पंछियों को उड़ते देखा जब मधुर बचपन याद आया तब परिंदों से कभी सीखा था मैंने नील गगन में उड़ते-फिरते एक डाल से दूसरे डाल पर पकड़म-पकड़ाई खेलना और पास आते ही फुर्र हो जाना बातों से कुछ और याद आया पेड़ों पर चढ़कर काली-डंडा बंदरों की तरह झलांग लगाना कितने ही विस्मर्णीय थे दिन शामों को जब घर-आँगन में दिया जलाते पीछे से बुलावा आये हाथ-मुंह धोकर हाथ जोड़ लो सद्बुद्धि के लिए दुआ कर लो कितने मासूम थे वो पलछिन आज परिंदों को देख याद आया काश! लौट आता वो मधुर जीवन ! ~ फ़िज़ा #happypoetrymonth

बहुत दूर का सफर तय हुआ जब हुआ..!

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यूँ ही खिड़की से जब बाहर देखा सूरज की मुस्कान को पहले देखा ताड़ के पत्तों को हिलते-डुलते देखा कुछ पंछियों को गगन में चहचहाते देखा कुछ तो बिजली के तारों पर झूलने लगीं  यही दृश्य बचपन की याद दिला गया ऐसी ही खिड़की मेरे कमरे में भी थी जहाँ से संसार की ख़ुशी झलकती थी बस फर्क सिर्फ इतना ही था तब पंछी अपने लगते थे पेड़ आमों के होते थे आज कुछ अजनबी पेड़ों को देखा  मन अनायास उन खिड़कियों में झांकने लगा बहुत दूर का सफर तय हुआ जब हुआ सोचा नहीं था तब इतनी दूर आजायेंगे चलते-चलते हम कहाँ के थे और कहाँ के हो गए? ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

एक सपना यूँ भी आया ...!

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कल रात शारुख आये थे सुना शूटिंग हैं यहाँ पर देखते ही मुझे गले लगाया लगे  हाथ मैंने भी बताया यहाँ सामने ही है घर मेरा देख उस तरफ पुछा मुझ से वो जो खड़ी हैं मम्मी है तुम्हारी? हामी भरते मैंने भी सर हिलाया शूटिंग करते हुए छलांग यूँ लगाया सीन कट सुना फिर बालकनी में पहुंचे  देखा मम्मी को गले लगाकर पाँव छूआ जाने क्या होने लगा डायरेक्टर ने कैमरा हम पर भी घुमाया लिए कुछ डांस सीन फिर हम भी निकल आये दूसरे दिन एक फ़ोन आया महिला की आवाज़ में नाम हमारा बुलाया फ़ोन पर बात-चीत हुई कहने लगीं रीशूट पे बुलाया सोचने लगे हम कहाँ शूट कर रहे इतने में वहां से पुछा भारततनाट्यम कर लेती हो? हमने झिझकते आवाज़ में कहा नहीं, मगर सीखा दो तो कर भी लेंगे पोज़ हंसकर बोली हरामज़ादी काहे डरती हो ग़ुस्से से हमने भी टर्राया कैसी जुबान है ये तुम्हारी अच्छी हिंदी की करती हो बदनामी? नाम क्या है तुम्हारा जनानी ? कहने लगी डॉली हृषिकेश सुनते ही फिर डाँट लगाया अपनी जगह की लाज रख कन्या भाषा कभी बुरी नहीं होती करते हैं उसे हम बेबुनियादी उसे पता नहीं था माइक के पास थी वो खड़ी शारुख क्या सब यूनिट ने सुन ली शर्म से वो 'सॉरी' ...

तो क्यों न कहीं भटक आते हैं...!

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नींद आजकल अच्छी आती है, मगर जाने का नाम न लेती है, किसी ख्वाब में ले जाती है, मानों भटकाना चाहती है, ख्वाब मगर अच्छी आती है, धुंदली यादों में समेट लेती है, वहां से निकलने नहीं देती है, मानों भटकाना चाहती है, यादें फिर गुदगुदा जाती हैं, तभी दिल कहीं घूम आती है, सेहर से शब् जाने कहाँ होती है, मानों भटकाना चाहती है, अब दिल भी सोच रहा है, भटकाने का ही इरादा है, तो क्यों न कहीं भटक आते हैं, चलो कहीं दूर सैर करके आते हैं ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

आदमी-औरत का भेदभाव यहाँ भी

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देख उसकी कहानी आज दर्द हुआ कहीं सीने में आज जाने कितने ही त्याग स्त्री करे उसे साधारण ही समझा जाए वहीं गर वो पुरुष करें तो हाय -हाय ! देख विन्नी मंडेला की कहानी अफ़सोस हुआ और आँखों में पानी हर तरह के भेदभाव संसार में होते हैं  आदमी-औरत का भेदभाव यहाँ भी वो भी पति करे पत्नी पर हाय-हाय ! कालकोठरी में बिताये २७ साल कार्तिकारी बनकर टिकी पत्नी बेहाल निकाल लायी पति को जेल से बाहर साथ रही हर दुःख-सुख संग बिताये पद और पत्नी में, छोड़ा पत्नी को हाय -हाय !   ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

ख्वाब को कौन रोक सका है 'फ़िज़ा'

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मेहकते हैं फूल मुरझाएं तो क्या गंध फिर भी सुनहरी रेहा जाती है ! कुछ दिनों के लिए ही सही जानिये अरमान संवर जाते हैं जीने के लिए ! कोई कली जब बाग़ में खिलती है हों न हों ख्वाईशें जनम ले लेतीं हैं ! आसमान चाहे खिड़की से नज़र आये उड़ने की चाह उसके भी मन में आये ! ख्वाब को कौन रोक सका है 'फ़िज़ा' बंद ही नहीं खुली आँख से भी दिखते हैं ! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

ढलती शाम की काली रात ...!

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शाम ढल रही थी जैसे- जैसे उसकी उम्मीद भी जाती रही वैसे जाने क्यों दिल हसास सा रहा ऐसे न कोई आहट बिलकुल वीरान ऐसे  मानो रात निगल रही है शाम को ऐसे उसका जी घबराता, नज़रें ढूंढ़ती किसे कोई है भी तो नहीं आस-पास ऐसे जाने कैसे रात थी बहुत साल हुए जैसे किसी सोच में पड़ा मुसाफिर सा जैसे पास में ठंडा मटका नहीं सांप जैसे बदन से सिकोटकर न सो सकते ऐसे न ही इतनी रात कोई जागे ऐसे कटी रात कुछ ऐसे पंछी चेहके ऐसे तब खुली आँख देखा सेहर हो गयी जैसे हाँ ! मैं क्यों घबरा रहा था ऐसे इस रात की सेहर ही न हो जैसे? मायूसी की भी हद्द है यार कैसे  कल रात क्यों लगी लम्बी रात ऐसे जिसकी कोई सुबह ही न हो जैसे !!! ~ फ़िज़ा  #happypoetrymonth

बस आगे निकलता ही चल ...!

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दिल की अस्थिरता भी देखिये न ठेहरता ही नहीं एक जगह टिक के आवारा बादलों की तरह भटकता कभी इस किनारे तो कभी उस पार जहाँ कहीं मिल जाए प्यार का इज़हार बेशर्म रुक जाता है आसरे की आस में ठोकरें खा कर भी न सीखे ऐसा दिल जाने किस काम का है ये नादान दिल बंधनों के खुलने तक हो आज़ाद ये दिल उसी नहर के पानी की धारा समान जो की बहती रहती है अनजान डगर दो किनारों के बीच गुज़रती हुई प्यासों की प्यास बुझाती हुई  तीव्रगति से रास्ता बनाता तू चल बस आगे निकलता ही चल ! ~ फ़िज़ा

अभी मंज़िल बहुत दूर है !

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पत्ते भी तरुवर से टूट के बिखरते हैं पतझड़ के बहाने जाने कितने ऐसे राज़ हैं छुपाये इन पत्तों ने ! फूल खिलाने में कई बीत जातें हैं साल वोही कली से फिर फूल बनकर तोड़ी जाती है तरुवर से हाल तरुवर का दरख़्त का जाने कोई ना ! फ़िज़ा का रंग तो देखो हर मौसम में हर पहर में ख़ुशी का आलम संजोय रखना जैसे दिनचर्या की रैना वोही आलम है अपना सबका वोही चलन है जाने जो जाने वो राज़ जो न जाने वो रहा वक़्त का शिकार ! दरख्तों से फूल-पत्तियों से सीखा है मैंने हँसना चाहे धुप हो या छाँव या हो आंधी और तूफ़ान चल मुसाफिर अकेले निकल अभी तेरी मंज़िल है दूर दूर वहां जहाँ सभी न आएं कोई साथ दे न पाए तो साथ ले भी न जाए चलना ही सफर का नियम है, मुड़के न देख अभी मंज़िल बहुत दूर है  ! #happypoetrymonth ~ फ़िज़ा