Monday, September 14, 2020

कमरों से कमरों का सफर


सेहर से शाम शाम से सेहर तक 
ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक 
कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक 
तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक 
ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक 
बहुत त्याग मांगती  रहती हैं जब तक 
है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक 
इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक 
ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक 
खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक 
एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक 
आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक?
तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक 
इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक 
यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक?

~ फ़िज़ा 
#हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९ 

 

Wednesday, September 09, 2020

रास्ते के दो किनारे

 



रास्ते के दो किनारे संग चलते

मिल न पाते मगर साथ रेहते  

मैं इन दोनों के बीच चलती 

भीड़ में रहकर तनहा सा लगे 

किसी अनदेखे खूंटी से जैसे 

अपने आपको बंधा सा पाती 

छूटने की कोशिश कभी करती 

फिर ख़याल आता किस से?

बहुत लम्बा है ये सफर मेरा 

कब ख़त्म होगा कहाँ मिलेगी 

ये राहें कहीं मिलेंगी भी कभी?

थकान सा हो चला है अब तो 

किसी तरुवर की छाया में अब 

विश्राम ही का हो कोई उपाय  

निश्चिन्त होकर निद्रा का सेवन 

यही लालसा रेहा गयी है मन में 

तब तक चलना है अभी और 

जाने कहाँ उस तरुवर का पता   

जिसके साये में निवारण शयन का !


~ फ़िज़ा 

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...