Wednesday, December 21, 2016

खुश हूँ! चंद दोस्त हैं अब रह गए इस तरह...!!!


मैं देखती हूँ इन नज़ारों को कुछ इस तरह 
मानो मुंह दिखाई का रस्म हो जिस तरह 
हर चीज़, जगह बदल चुकी है इस तरह 
मानों जैसे मौसम बदलता हो किसी तरह 
हर सेहर और पहर घूरतीं हैं मुझे इस तरह 
मानों अजनबी हूँ इस शहर में किसी तरह !!
खुश हूँ! चंद दोस्त हैं अब रह गए इस तरह 
याद दिलातें हैं बचपन के खुशबु की तरह
मस्ती और उनकी हस्ती सुनहरी धुप की तरह
वो अब भी नहीं बदले गुज़रे वक़्र्त की तरह   
हँसी की कल-कल बहती जल की धारा
यही महसूस होता है ज़िंदा हैं हम इस तरह !!   

~ फ़िज़ा 

Saturday, December 03, 2016

आज़ाद कर खुद को सभी से 'फ़िज़ा' ...


मुझे नहीं परवाह कोई है या नहीं 
खुद ही हूँ मेरा क़ातिल खबर है मुझे  
कमज़ोर हाथों से दिया है सहारा 
ये बात और के वो भूल जाएँ उसे 
जोड़ने की व्यथा में टूट जाते हैं सब 
बिखरे ही रहने दो इन्हें क्योंकि ये 
उम्मीद तो देते हैं किसी से जुड़ने की 
क्या तेरा और मेरा इस मायानगरी में 
जैसे आया है वैसे जायेगा बिना बताये 
इंसान हैं तो निभाले इंसानियत सभी से 
अफ़सोस भले काम न आये फिर कभी 
आज़ाद कर खुद को सभी से 'फ़िज़ा'
कम से कम गिला तो नहीं किसी वास्ते!

~ फ़िज़ा 

Tuesday, November 22, 2016

कब? आखिर कब?


कहना तो बहुत कुछ है मगर 
हर दिन एक नया मसला है 
नयी बात नयी उलझन नयी मुश्किलें 
फिर भी जब तक मैं सोचूं 
तब तक फिर एक नया मसला 
नया दिन, नयी परेशानी, 
नए अत्याचार, नए दंगे 
नए दुश्मनों के नए तरीकों से 
सताने के नए तौर-तरीके  
जितने रंग हैं दुनिया में 
उतने ही नए सताने के तरीके 
उतने ही दर्द भरी दस्तानो के 
पर्चे जो मिलते हैं गली-गली 
नज़ारे जो कभी सोचने पर करें 
मजबूर मुझे, मैं हूँ तो क्यों हूँ?
और गर हूँ तो क्यों मैं देखती रहूँ ये 
कब तक हो अन्याय का ये ढेर 
जो सहे इंसान या फिर जानवर भी 
क्या है मेरा जो तेरा नहीं और 
क्या है तेरा जो मेरा नहीं 
फिर भी मार-मारी है हर बात की 
जैसे रहना ही नहीं चाहता कोई खुश 
न देखना चाहे क्या है ख़ुशी चेहरे पर 
खोखली हो गयीं हैं सारी इंसानियत 
सारे ढखोसले केवल दिखाने के 
बातों के, तो कभी फैशन के वास्ते 
रह गया है सब नाम के वास्ते 
कब वो भी दिन आये जब 
करें लोग एक -दूसरे के वास्ते 
जीवन अपना न्यौछावर और 
कहें हम सब हैं सबके लिए 
कब? आखिर कब?

~ फ़िज़ा 

Sunday, October 30, 2016

जय हिन्द सेनानियों


सुख हो या दुःख हो 
मातम हो या हर्षोउल्लास 
एक सिपाही अपने ही 
सीमा में और पोशाक में 
रहता है और सुरक्षा देता है 
काश हम सब भी ऐसा ही 
अपने घर में और संसार में 
एक ही किरदार इंसानियत का 
निभा सकते !?!

सोचती हूँ तो दर्द बढ़ता है 
तुम्हारे और तुम्हारे परिवार का 
हर बलिदान सर आँखों पर 
हर ख़ुशी और सुखों के पल 
तुम सभी का ऋणी है हर पल 
कह न सके या सुन न सके तो 
दिल की दुआ दिल से यही है 
हमारी ख़ुशी के दो पल आपको 
दुःख के दो पल हमको !?!

जय हिन्द सेनानियों 
तुम इंसान से परे हो 
तभी तो फौलादों की तरह 
सीमा पर खड़े रहते हो 
चट्टानों से लड़कर भी 
हमें उसकी आंच से बचाते हो 
काश हम भी ज़िन्दगी की 
बड़ी हक़ीक़त को जानकर 
तुम सा बन पाते !?!

इस साल की दिवाली के दीये 
तुम्हारे नाम जलाएं चलो साथी 
दुआओं में तुम्हारी सलामती 
सर्व-संपन्न रहे परिवार तुम्हारा 
एक वो पल आये जीवन में तुम्हारे 
जहाँ हम रहे तुम्हारी जगह और 
तुम रहो हमारी जगह साथी 
दुःख और सहनशील क्या है 
पता तो चले हर नागरिक को हमारे !?!

जय हिन्द #Sandesh2Soldiers 

~ फ़िज़ा 

Saturday, October 29, 2016

मुझे दिवाली की शुभकामनाएं चाहिए तुमसे!!!

कुछ रिश्ते नब्ज़ की तरह गहरे 
सांस की तरह छिपे नज़र आते हैं 
दोस्ती की ये नब्ज़ सिर्फ समझ है 
न किसी नाम और किरदार में 
वक़्त पड़ने पर हाज़िर होना और 
खुशियों में दुआएं देना यही तो था ?
शायद इन्ही वजह से वो नब्ज़ की तरह 
गहराई में जा बैठा और फिर 
एक हौसला सा रह गया कहीं दिल में 
के कोई हो न हो मेरा ये दोस्त हमेशा है 
साथ मेरे जो करे सभी का भला 
ज़मीन से जुड़ा ये शख्स ले आये 
जान अपनी ज़िन्दगी में फिर एक बार 
पुकारते हैं तुम्हें - चले भी आओ निद्रा से
बहुत हुआ आराम अब उठो मिलो सभी से 
मुझे दिवाली की शुभकामनाएं चाहिए तुमसे !!!

~ फ़िज़ा 

Saturday, October 15, 2016

उसकी एक झलक ही सही ...!


उसकी एक झलक ही सही 
चाहे फिर वो हो वर्धमान 
या वो हो पूर्णचंद्र बेईमान 
दिल से भी और नज़र से भी 
झलकते हैं मेरे अरमान 
खुश हूँ मैं इसी ख़याल में 
वो है और मैं हूँ एक दूसरे के लिए 
ज़माना कब किस वक़्त मुकर जाये 
नहीं है इसका इल्म अभी नादान
ज़िन्दगी रही न रही सही कभी 
जब भी उठाऊँगी नज़र अपनी 
रहेगा वो हमेशा चमकता -दमकता 
आस देता हुआ बढ़ता मेरा हौसला 
रहे यहाँ जहाँ है आसमान !!!

~ फ़िज़ा  

Wednesday, October 05, 2016

जैसी करनी वैसी भरनी ...!

जैसी करनी वैसी भरनी 
सुनी और पढ़ी थी हमने 
मिली सीख बहुतों से ज्ञानी 
लेकिन जो न सीखे औरों से 
पड़ती है उन्हें मुंह की खानी 
औरों की ग़लतियों से न सीखे 
सीखे खुद ग़लती करके हम विज्ञानी 
जैसे हमने की होशियारी 
वही हमको मिली सजा दीवानी 
खुद ग़लत कर बैठे आज सोचने 
सही कहा था जिसने भी कहा था 
जैसी करनी वैसी भरनी 
~ फ़िज़ा 

Friday, September 30, 2016

काली की शक्ति हूँ तो ममता माँ की!

जलता तो मेरा भी बदन है 
जब सुलगते अरमान मचलते हैं 
जब आग की लपटों सा कोई 
झुलसकर सामने आता है तब 
आग ही निकलता है अंदर से मेरे 
सिर्फ एक वस्तु ही नहीं मैं श्रृंगार की 
के सजाकर रखोगे अलमारी में 
मेरे भी खवाब हैं कुछ करने की 
हर किसी को खेलने की नहीं मैं खिलौना 
हर किसी के अत्याचार में नहीं है दबना 
कदम से कदम बढ़ाना है मेरा हौसला 
रखो हाथ आगे गर मंजूर है ये चुनौती 
समझना न मुझे कमज़ोर गर हूँ मैं तुमसे छोटी 
काली की शक्ति हूँ तो ममता माँ की 
रंग बदलते देर नहीं गर तुम जताओ अपनी 
मर्दानगी !!!

~ फ़िज़ा 

Saturday, September 24, 2016

इंसान !!!


हादसों के मेले में कुछ यूँ भी हुआ 
कुछ लोगों ने मुझे पुकारकर पुछा 
कहाँ से हो? किस शहर की हो?
नाम से तो लगती हो हिंदुस्तानी 
जुबान से कुछ पाकिस्तानी 
उपनाम से लगे विदेशी से शादी?
कौन हो तुम? और कहाँ से हो तुम?
हंसी आगयी नादानी देखकर 
फिर थोड़ी दया भी आयी सोचकर 
क्या हालात हो गयी है सबकी 
बिना धर्म, जाती के जाने 
नहीं पहचाने अपनी बिरादरी 
क्या में नहीं हूँ इंसान जैसे तुम हो?
क्या नहीं हैं मेरे भी वही नैन -ओ- नक्श ?
क्या बोली नहीं मैंने तुम्हारी बोली?
फिर चाहे वो हो मलयालम, हिंदी, उर्दू 
पंजाबी, मराठी, या अंग्रेजी ?
इंसान हूँ जब तक रखो आस-पास 
रखो दूर हटाकर मुझको जब हो जाऊं 
मैं हैवान!!!
बंद करो ये ताना -बाना 
जाती-भेदभाव का गाना 
चोट लगने पर तेरा मेरा 
सबका अपना खून एक सा 
दुखती रग पे हाथ रखो तब 
दोनों आखों में आंसू एक समान सा 
फिर कैसा भिन्नता तेरा-मेरा 
चाहे हो तुम राम, या रहीम 
या फिर हो ब्राहमण या शुद्र 
पैदा होने पर किसने जाना 
ऊंच क्या है और क्या है नीच !
सब हैं इंसानों के ढकोसले 
अपनी-अपनी बाड़ ये बनाये 
इंसानी जीवन में दरार ये लाये 
जब सब कुछ एक समान सा है 
तब, किस बात का भेदभाव प्यारे?
जाग अब तो हे ज्ञानी इंसान तू 
जातीय-भेदभाव सब हैं रोग 
जो बाँटते इंसानों के दिल को सारे !!!! 

~ फ़िज़ा 

Thursday, September 22, 2016

शाम की मदमस्त लेहर


आशाओं से भरी सेहर 
निकल पड़ी जैसे लहर 
जाना था मुझे शहर-शहर 
खुशियों ने रोक ली पहर 
निकल पड़ी करने फिर सफर 
घुमते-घुमते होगयी फिर सेहर !

शाम की मदमस्त लेहर 
हवा की शुष्क संगीत मधुर 
लहराता मेरा मन निरंतर 
किरणों की जाती नहर 
चहचहाट पंछियों के पर 
मानो करे कोई इंतज़ार घर पर !!

~ फ़िज़ा 

Saturday, September 17, 2016

सुबह की धुंध और हरी घांस की सौंधी खुशबू...!


सुबह की धुंध और हरी घांस की सौंधी खुशबू 
बारिश से भीगी सौंधी मिट्टी की खुशबू 
बस आँखें मूँद कहीं दूर निकल जाती हूँ 
कुछ क्षण बीताने के बात वक़्त थम सा जाता है 
पलकों की ओस जब बूँद बनकर निकल आते हैं 
समझो घर लौट आयी !
क्या पंछी भी ऐसा ही महसूस करते हैं ?
जब वो एक शहर से दूसरे तो कभी एक देश से दूसरे 
निकल पड़ते हैं खानाबदोशों की तरह 
यादों के झुण्ड क्या इन्हें भी घेरते हैं कभी?
जाने किस देश से आती हैं और जाने किन-किन से रिश्ते 
काश पंछी हम भी होते? उड़-उड़ आते जहाँ में फिरते 
यादों के बादलों संग हम भी दूर गगन की सैर कर आते 
फिर महसूस करते मानो, समझो घर लौट आये !!!

~ फ़िज़ा 

Wednesday, September 14, 2016

हिंदी दिवस की शुभकामनाएं


दूर क्षितिज पर निखरा -निखरा 
काले-काले अक्षरों जैसा 
भैंसों के झुंड को आते देखा 
आँखें मल -मल देखूं जैसे 
मानो सब जानू मैं ऐसे 
किन्तु पढ़ न पाँऊं  ये कैसे  
कोस रहा अपने ही किस्मत को 
जब दिखा काले अक्षरों में 
स्वागत का परचम !
कहता दिवस है हिंदी का आज 
लिखो-पढ़ो-कहो कुछ हिंदी में 
जब हो अपनी जननी की भाषा 
एक दिवस ही क्यों न हो 
जिस किनारे भी हो भूमि के 
करो याद उन मात्राओं को 
उन लफ़्ज़ों को उन अक्षरों को 
जिन से कभी मिली मॉफी 
तो कभी शाबाशी या फिर 
खुशियों की फव्वारों सा 
स्नेहपूर्ण आज़ादी जहाँ  
निडर बनके केहदी हो 
अपने मन की व्यथा-कथा  
जय-हिंदी !

~ फ़िज़ा 

Sunday, August 21, 2016

नयी धुप नयी हवा है चिलमन में


धुप की किरणों में सहलाते बदन 
रूह को जलता क्यों छोड़ देते हैं 
इन दरख्तों से सीखो क्या कुछ ये सहते हैं !

पंछियों की चहचहाहट मानो कुछ कहती हैं 
तुम समझो या न समझो गीत ज़रूर सुनाती है 
कभी मुड़के देखा है कितना कुछ समझाती है!

नज़रअंदाज़ करते हो कब तक और क्यों?
हवा अपना रुख बदलती है हर वक़्त, फिर भी 
समझने वाले समझते हैं देर आने तक!

बंजर ज़मीन सूखे पत्ते बंजर फर्नीचर 
पुकारते हैं, सुनाते हैं एक अनसुनी कहानी 
चलो उठो, अब तो संवारने की घडी आगयी!

नयी धुप नयी हवा है चिलमन में 
कॉफी का प्याला हाथ में लिए 
नयी डगर नए एहसास लिए निकल पड़ते हैं... !

~ फ़िज़ा 

Sunday, August 07, 2016

हर लहर कुछ कहती है मेरे संग


बैठी हूँ सागर की लहरों के संग 
हर लहर कुछ कहती है मेरे संग
जब भी आती दे जाती है संदेसा 
फिर कुछ गुफ्तगू कर मेरे संग 
ले जाती है सारी तन्हाईयाँ 
छोड़ जाती हैं यादें मुसलसल 
कुछ और सोचूँ उस से पहले 
आ जातीं हैं सुनाने कहानियाँ 
आते-जाते लहरों से भी 
कुछ सीखा इन दिनों में 
कभी लगी वो सीधी -साधी 
कभी लगी वो गुरूर वाली 
ऐसे आती जैसे करती है राज
जाती भी तो मर्ज़ी से अपनी 
हम मुसाफिर होकर भी देख 
ललचते उसकी आज़ादी पर 
जब चाहे आती उमंग से 
बड़ी लहरों में तो कभी छोटी 
आते-जाते देती मौका सबको 
रेत पर लिखने नाम अपनों का
लिखते ही वो जान लेती   
नाम लिखा किस ज़ालिम का :)
ज़िन्दगी की किताब में फिर 
एक और नया पन्ना जोड़ने का 
दे जाती अवसर सबको लिखने 
एक कहानी और जीवन का
रखो न कोई मोह-माया 
सादगी से जियो हमेशा 
आये हो तो जाओगे भी कल 
क्या लाये जो ले जाओगे संग 
कौन काला -कौन गोरा 
सब कुछ धरा रेह जायेगा 
वैसे का वैसा !
आये थे बीज बनकर 
जाओगे ख़ाक बनकर 
जितनी है साँसों की लहरें 
जी लो ज़िन्दगी के वो पल 
किसे पता किसको पड जाये 
जाना पहले कल !?!

~ फ़िज़ा 

Friday, July 22, 2016

क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?


आज यूँ ही बहुत देर तक सोचती रही 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 
जहां मैं जाना चाहूँ !
कितनी बेड़ियां हैं 
पैरों पर कर्त्तव्य के 
तो हाथ बंधे हैं 
उत्तरदायित्व में 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां !
पूछते सभी हरदम 
क्या करना चाहोगी 
गर मिला जो मौका 
सोचने से भी घबराऊँ 
क्यूंकि दाना-पानी 
खाना -पीना जीवन की कहानी 
फिर दिल की रजामंदी 
कैसे होगी पूरी 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 
जहाँ जरूरतों में 
बाँटू प्यार -मोहब्बत 
दूँ मैं औरों को हौसला 
दो निवाला मैं भी खाऊँ 
दो उनको भी दे सकूं 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 

~ फ़िज़ा 

Friday, July 08, 2016

क्या रंग है अापका?


मुझसे न देखा गया 
उसका ढंग 
उसका ये तरंग 
सिर्फ काफी था उसका रंग !
अब सब साफ नज़र अाता था 
सभी तोहमतें उसपर 
सभी इल्ज़ाम उसपर 
क्यूंकि उसका था ही ऐसा रंग 
होश खो बैठा, करने लगा जंग  
देखा जो लाल खून उसका भी 
मेरा भी है तो एक जैसा ही रंग 
क्या मिलेगा काटकर अंग 
घूम हो जाएंगे इसमें  तंग
कल जब ढूँढोगे मुल्कों 
न मिलेगा कोई साथी-संग
तब लगेगा सबकुछ बेरंग 
तरसोगे लेके दिल की उमंग 
 क्या रंग है अापका?
क्या ढंग है अापका? 
जाने क्यूँ लगते हो 
जाने-पहचाने  रिश्ते का 
हैं तो सब अपने अम्मा के 
लाए क्यूँ नही वो प्यार 
जो लिया था मगर दिया नहीं 
किसी और को !
कहां रखते हो इतनी नफरत 
कहां लेके जाओगे 
इतनी नफरत जो खत्म न हो 
इस जहां में जब लोग ही खत्म हो जाएंगे !

~ फ़िज़ा 

Friday, July 01, 2016

अक्षरों से खेलते-खेलते ...!


अक्षरों से खेलते-खेलते 
कब ये शब्द बन गए 
पता ही न चला! 
शब्दों की लड़ियों ने 
जाने क्या नए मायने 
सीखाए!
मैं अक्षरों से खेलती रही 
शब्द मेरे संग खेलते रहे 
यूँ ही !
जाने क्या सोचकर 
वो मुझ से दिल लगा बैठे 
मैं भी यूँ ही !
अांखमिचोली में कब 
एक-दूसरे के हो गए 
पता ही नहीं !
किसी ने कहा पद 
किसी ने कविता 
जाने क्यूँ ?
सोचते-सोचते शाम 
ढल चुकी फिर न सोचा 
जब चांद निकल अाया !!

~ फ़िज़ा 

Monday, May 30, 2016

एक दुखियारी बहुत बेचारी



नारी के कई रूप हैं और एक ऐसा भी रूप है जिसे वो बखूबी निभाती है क्यूंकि नारी हमेशा अबला नहीं होती !
एक सत्य ये भी देखने मिलता है !
एक दुखियारी बहुत बेचारी 
किसी काम की नहीं वो नारी 
रहती हरदम तंग सुस्त व्यवहारी 
हुकुम चलाये जैसे करे जमींदारी 
पति कमाए वो उड़ाए रुपये भारी 
ईंट -पत्थर से बने मकान को चाहे 
आडंबर दुनिया की वो है राजकुमारी 
उसके आगे करो तारीफें और किलकारी 
उसे तुम लगोगे जान से भी प्यारी 
वो खुश रहती हरदम है वो आडंबरी 
रहना तुम दूर उससे वर्ना होगी बिमारी 
तुम सोच न सको ऐसी दे वो गाली 
एक दुखियारी बहुत बेचारी !!!!

~ फ़िज़ा 

Saturday, May 21, 2016

हाय! कैसे कोई कहे ये है बरखा का खेल !!


बारिशों का मौसम और वो मन की चंचलता 
क्यों लगे मुझे जैसे पाठशाला की हो बुट्टी 
या फिर दफ्तर से लेते हैं चलो छुट्ठी 
सफर का एक माहौल सजाता है चित्तचोर 
निकल पड़ो यूँही राह में दूर कहीं बहुत दूर 
जहाँ न हम होने का हो ग़म, न तुम होने का 
निकल पड़ो बरसात में भीगते हुए कुछ पल 
संगीत को करने दो उसकी अठखेलियाँ 
फिर तुम चाहे हो जाओ बावले दीवाने कहीं 
भूल जाओ कोई है इस जहाँ में या उस जहाँ में 
मदमस्त होकर मंद हो जाओ मूंदकर आँखें 
प्रकृति के संग हो जाये वो संगम मोहब्बत का 
आलिंगन हो ख्वाबों और हकीकत का 
प्यार करो इस कदर के हर पत्ता हर कण कहे 
मैं वारि जाऊँ बलिहारी जाऊँ इस दीवानेपन पर 
जहाँ सिर्फ बारिश की बूँदें नज़र आये पर्दा बनके 
बारिशों का मौसम और वो मन की चंचलता
हाय! कैसे कोई कहे ये है बरखा का खेल !!

~ फ़िज़ा 

Wednesday, May 11, 2016

कुछ लिखते क्यों नहीं ...!


साफ़ सुथरी स्लेट पर 
वो देखते रहा यूँ जैसे 
अभी कोई निकल आएगा 
जो उसे जगाएगा 
और कहेगा -
क्या सोचता है दिन भर 
कुछ लिखते क्यों नहीं 
क्यों डूबे हुए ख्यालों को 
देते नहीं कलम का सहारा 
कुछ नहीं तो कोई पढ़नेवाला 
ही बता दे कोई राय तुम्हें 
क्या सोचता है दिन भर 
लिख ही डालो अब वो सब 
जो डुबाए रखता है तुम्हें 
कुछ हमें भी कोशिश करने दो 
क्या खोया क्या पाया है 
इसका अनुमान गोते खाकर 
डूबते संभलते ही समझा दो 
मगर बेरंग न रखो इस स्लेट को 
कुछ ज़रूर लिखो मन की रात  
जो लगे सबको अपनी बात  
दिखे किसी के अरमान और 
लगे अपनी ही सौगात  
एक पल जो न ख़याल है 
न सवाल है, बस दरिया है 
डूब जाना है !

~ फ़िज़ा 

Sunday, May 08, 2016

माँ का जीवन सदा यही है


दुनिया बड़ी ज़ालिम है 
यही कहा था माँ ने 
संभलना हर कदम में 
यही कहा हरदम माँ ने 
कभी अकेले न जाना रस्ते में 
कोई बेहला के न ले जाए 
गर कोई ले भी गया प्यार से 
अपने कदमों में खड़े रहना अपने दम से 
ये एक माँ ही केह सकती है बेटी से 
गर्व है, सबकुछ तो नहीं सुना माँ का 
मगर कुछ बातों का किया पालन 
आज हूँ मैं अपने कदमों का बनके सहारा 
दे सकूं किसी और को भी सहारा 
सर उठाकर जी भी सकूं अकेले 
चाहे रहूं मैं नकारा 
मेरी माँ थी बढ़ी कठोर बचपन में 
शायद मुझे कठोर बनाने के लिए 
दिल से रही वो मोम रही पिघलती 
रेहती  सुबह-शाम फ़िक्र में 
समझ न पायी उसकी ये बेचैनी 
जब तक मैं न हुई माँ बनके सयानी 
माँ का जीवन सदा यही है 
मृत्यु तक बच्चों का सौरक्षण 
यही है जीवन की कहानी 
यही है जीवन की कहानी !

~ फ़िज़ा 

Saturday, May 07, 2016

उसे इतनी ख़ुशी मिली जहां में ..!


उसे इतनी ख़ुशी मिली जहां में 
एक नफरत भरी नज़र उसे ले डूबी 
सौ खुशियों के जहां में एक दुःख 
भला वो न जी सकी न ही मर सकी 
बहुत सोचा सही या ग़लत मगर 
शान्ति और सबुरी का विचार आया 
उसने गिड़गिड़ाते ही सही साथ चाहा 
बचे हुए दिन पश्चाताप में सही पर 
एक दूसरे की नज़र में बिताएं मगर 
शायद, ये ग़लत था उसकी सोच
उसका चले जाना ही अच्छा है 
भला जो सुख नहीं दे सकता किसीको 
क्या हक़ है भला उसका रहना 
और भी हैं जहां में जो प्यार के भूखे 
शायद उन्ही की शरण में बिताए 
बचे हुए दिन!

~ फ़िज़ा 

Saturday, April 23, 2016

आगे बढ़ो !



कहते हैं ग़लतियाँ करो 
आगे बढ़ो !
जीवन है बेहने का नाम 
आगे बढ़ो !
सफर कठिन है फिर भी 
आगे बढ़ो !
हार गए तो क्या उठो और 
आगे बढ़ो!
फिसले तो संभलो फिर भी 
आगे बढ़ो!
जीवन का नाम ही चलना है तो 
आगे बढ़ो!
जब आना और जाना अकेले है तो 
आगे बढ़ो! 
तुम ही तुम्हारे दोस्त हो और दुश्मन भी 
आगे बढ़ो!
मरना सभी को है एक दिन तो 
आगे बढ़ो!
उम्र दराज़ में लाये हो या नहीं 
आगे बढ़ो!
ज़िंदादिली का नाम ही ज़िन्दगी है 
आगे बढ़ो!

~ फ़िज़ा 

Tuesday, April 12, 2016

कुछ ख्वाब देखे रखे सिरहाने


कुछ ख्वाब देखे रखे सिरहाने 
कुछ दिनों बाद फिर लगे लरजने 
कुछ-कुछ है याद रूमानी बातें 
वो सुलझी हुई लटें और बिखरे बादल  
वो पानी का बरसना ठंड से सिमटना 
साँसों की गर्मी और फिर रूमानी हो जाना 
कैसे धुंधले हैं यादें जो कभी रखे थे सिरहाने 
लगे कुछ गिले जुल्फों के तले आज 
याद आये वो पल भी गुदगुदाने के बहाने 
कुछ नज़रें मिलीं कुछ यादें संजोए 
फिर निकल पड़ी लहरों को सजाने 
मतवाले चंचल बेज़ुबान दिल 

~ फ़िज़ा 

Thursday, April 07, 2016

दो-नाव में सवारी न करो तो ही अच्छा है...!!!


ऐसा भी एक वक़्त आता है 
के कोई वक़्त नहीं रहता है 
हर एक की कोशिश होती है 
फिर कोशिशें भी बेकार होती है 
हर तरफ से हौसला रखते हैं 
फिर हौसले को दफा करते हैं 
हर बार अच्छाई को सोचते हैं 
फिर उसकी भी कमी नहीं होती है 
सोचने को तो हर कोई सब कुछ कर सकता है 
सोचना ही छोड़दे तो किसका भला है 
सच्चा-झूठा का भी वक़्त निकल जाता है 
बस आर-रहो या पार ऐसा वक़्त आता है 
किसी ने सच ही कहा, जब भी कहा है 
दो-नाव में सवारी न करो तो ही अच्छा है !!!

~ फ़िज़ा 

Saturday, April 02, 2016

उसने फूल भेजे थे पिछले इतवार


उसने फूल भेजे थे पिछले इतवार 
मैंने सोचा चलो नयी है शुरुवात 
हर पल यही दुआ रही रहे साथ 
न हो खट -पट न हो बुरी बात 
जैसे गुज़रा दिन डर भी रहा साथ 
सोमवार से शुक्र तक गुज़री ये रात 
आया शनिवार बदला मौसम हुई बरसात 
फिर आया इतवार तब समझी ये बात 
पुष्पांजलि लेके आये थे देने मुझे इस बार 
मैं ही पागल थी, समझी नहीं पुष्पांजलि है मेरी सौगात !

~ फ़िज़ा 

Sunday, March 06, 2016

बेहते ही जाऊँगी आवारा ...!


झर -झर भर-भर वर्षा 
करे तन-मन में हर्षा 
भीगे मेरी अंतरात्मा 
कभी लगे मैं आज़ाद हूँ 
कभी लगे पानी में जकड़ी 
लपक-झपक करे हाथा-पाई 
मन मस्त होकर मैं बरसाई 
निडर निरंतर निर्झर निर्मल 
बूंदों के बोस्से में लतपथ 
मैं न जाऊं बरसाती के अंदर 
खुलकर भीग जाने दो पल-पल 
बूँद की भांति मैं भी आज 
निकल पड़ी हूँ अपने आप 
नहीं सहारा नहीं किनारा 
बेहते ही जाऊँगी आवारा 
कहीं मिले गर कोई सागर 
मिल जाऊँगी उसमें घुलकर 
एक सिरे से आना ऐसा 
दूजे सिरे से जाना वैसा 
झर -झर भर-भर वर्षा 
करे तन-मन में हर्षा 
भीगे मेरी अंतरात्मा 

~ फ़िज़ा 

Monday, February 22, 2016

कितना अच्छा होता !!!!!

मौसम के बदलने से रुत बदलती तो 
कितना अच्छा होता 
वक़्त के गुजरने से बुरे दिनों को टालदे तो 
कितना अच्छा होता 
ग़लतियाँ हर किसी से होती है यही समझलेते तो 
कितना अच्छा होता 
ज़िन्दगी आडम्बरी चीज़ों से बढ़कर भी है जान लेते तो 
कितना अच्छा होता 
मकान सजाने से घर बन जाता तो 
कितना अच्छा होता 
काश लोग घर की सजावट की वस्तु जैसे होते तो 
कितना अच्छा होता 
लोग एक-दूसरे को इंसान ही समझ लेते तो 
कितना अच्छा होता 
हार-जीत छोड़कर एक छत के नीचे शांति से जी लेते तो 
कितना अच्छा होता 
कब समझे कोई लेके जाना तो कुछ नहीं फिर तो 
क्यों बटोरकर दिखावा करना ?
कब समझेंगे गोया, ये तो अब सबको नज़र आता है की 
क्या अच्छा है क्या बुरा?
कब समझेगा इंसान? काश पूरी होती भूख दिखावे से और हक़ीक़त नज़र आती तो 
कितना अच्छा होता 
बस... काश सबकुछ कितना अच्छा होता... 
गर सबने ये कविता पढ़ कर अपना लिया होता तो... 
कितना अच्छा होता !!!!!

~ फ़िज़ा 

Thursday, February 18, 2016

सुनी थी एक कहानी...


बहुत साल पहले 
सुनी थी एक कहानी 
प्यासा कौवा भटकता 
मारा-फिरा पानी के लिए 
कहीं दूर जंगल तेहत 
एक घड़ा नज़र आया 
बड़ी आस से कौवा 
पानी की तलाश में 
उम्मीद ले पहुंचा 
देखा झांकर घड़े में 
बहुत कम पानी था 
परछाई नज़र आती थी 
मगर पानी को चखना 
कव्वे के सीमा के बाहर रही 
सूझ-बूझ से कव्वे ने 
कंकड़ भर-भर के डाले 
उन दिनों तो पानी घड़े में 
आगया ऊपर श्रम से 
मगर अधिक कंकड़ से 
पानी की सूरत भी ढकी 
रहा जा सकती है 
कंकड़ कितना और कब 
डालना है इसकी भी 
सूझ-बूझ कव्वे को थी 
ताना हो या बाना 
हर वक़्त काम नहीं आती 
और ज्यादा से भी 
रास नहीं आती !

~ फ़िज़ा 

Thursday, January 28, 2016

न थी कभी...!


न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी
न थी किसी से कोई बंदगी 
मुश्किल में साथ थी हौसला 
न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी 
न थी किसी से कोई बंदगी !

हर हाल में सीखा मुस्कुराना 
दिया हौसले का नज़राना 
न हताश हुई ये ज़िंदगानी 
न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी 
न थी किसी से कोई बंदगी !

वो पल भी आया थक गए 
वक़्त आया अब निकल गए  
न  जीने की लालसा रही कोई 
न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी 
न थी किसी से कोई बंदगी !

सूखे पत्तों का ढेर है अब 
चाहो तो तिल्ली झोंकलो अब 
जलने का न डर  है कोई 
न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी 
न थी किसी से कोई बंदगी !

~ फ़िज़ा 

Monday, January 25, 2016

गणतंत्र दिवस की सुबह ...


गणतंत्र दिवस की सुबह 
का बेसब्री से इंतज़ार 
बचपन हो या अब 
साज और सोज़ वही 
जस्बा देश-भक्ति का 
जवानों की टोली 
सीना चौड़ा कर 
देश के चोरों को 
सलामी देते हुए 
अश्रु भर आते हैं 
नयनों में के जानकार भी 
चोरों की सत्ता है 
जवान देश के लिए जाँ 
कुर्बान करता है 
दिल भर आता है 
ये आँख बंद करके 
कूद पड़ते हैं 
ऐसी देश-भक्ति 
को मेरा शत-शत प्रणाम 
गणतंत्र दिवस एक 
आँखों में नमी का एहसास 
बहुत देर तक रेह जाती है 
 मन भावुक हो जाता है 
शहीदों को सलाम 
मेरे देश के सेनाओं को 
सलाम!

~ फ़िज़ा 

Friday, January 22, 2016

अब लाश है 'फ़िज़ा' मिन्नतें नहीं करती...!


उसने दिल तोड़ने का सबब कुछ ऐसा दिया 
न किसी को जीने दिया न ही मरने दिया !

ज्ञानी कभी संभलता है तो संभालता है 
मगर अज्ञानी जीने का पथ ढूंढ लेता है ! 

कहते हैं  माफ़ कर देना कठिन है 
कहने को तो सब कहते हैं जुग -जुग जियो !

वो खुद डरता था अपने आप से पागल 
कहता है मैं शक करती हूँ उसपर ! 

उसकी हर बात पे औरत का ज़िक्र करना ऐसा 
मानो किसी को परेशान करने की साज़िश !

कौन जीता है तेरे सर होने तक ऐ इंसान 
ज़िन्दगी किसी की जागीर नहीं होती !

उसकी उदासी छा जाती माहोल में हर पल 
जब भी मुझे मुस्कुराते देखता वो हरजाई !

अब लाश है 'फ़िज़ा' मिन्नतें नहीं करती 
वक़्त का क्या है जब आये तब ले जाये हमें !!

~ फ़िज़ा 

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...