Thursday, December 31, 2020

ज़िंदा हो इसीलिए नया साल मुबारक ही समझना

 


हर साल आता है साल नया 

हर पुराने साल को करने विदा 

हर गुज़रे साल से सीखते नया 

मगर होता तो नहीं कुछ भी नया 

ये साल बहुत कुछ हमें सीखा गया 

क्या चाहिए और कितना बता गया 

रोज़ मिले या न मिलें हम दोस्तों से 

दिखा दिया कौन अपना और पराया 

पैसों की ज़रुरत कम इंसान काम आया 

घर की दाल-रोटी आम का अचार भला  

स्वस्थ और स्वादिष्ट खाना सीखा गया 

ज़रुरत तो वैसे कुछ भी नहीं जीने के लिए 

वक्त ने इंसान को फिर किसान बना दिया 

बगीचों में टमाटर धन्या अब उगने लगा 

रोज़ परिवार संग बैठकर योजना बनाने लगा 

छोटे से बड़ा घर का उत्तरदायी होने लगा 

कंपनियों को समझ आने लगा निष्ठावान का 

घर से हो या बगीचे से काम तो होने लगा 

वक्त के साथ स्वस्थ्य पर निगरानी रखने लगा 

इंसान आखिर इंसान पर भरोसा करने लगा 

ज़िन्दगी देता इंसान तो वही लेता भी जान 

मास्क न पहन गैर जिम्मेदार पार्टियां करने लगा 

अपना न सही मगर औरों को खतरे में डालने लगा 

बात भी सही है अब तो वज़न कम करो अपना 

कुछ न कुछ करो पृथ्वी पर न बनों बोझ इतना 

ज़िन्दगी में पाने के लिए खोना भी पड़ता है उतना 

फिर वो ज़िन्दगी, रिश्ते, वक्त या हो खज़ाना 

दो गज ज़मीन रोटी खाने को पीने को पानी 

ज़िन्दगी सादगी में भी वो अदा है कातिलाना 

कुछ न बदलना जो सीखा इस साल ऐ ज़माना 

अति आत्मविश्वास में अपना सब कुछ न खोना 

ज़िंदा हो इसीलिए नया साल मुबारक ही समझना  

ज़िंदा रहना औरों को ज़िंदा रेहने का प्रोत्साहन देना 

नया साल स्वस्थ सकुशल हो यही है कामना !


~ फ़िज़ा 

Tuesday, December 22, 2020

एहसास !

 

एहसास !

जो उस पल में रेहने संवरने के ख़ुशी में 

बाकि हर पल को भूल जाने या भुला देने में 

जो शायद उम्र भर फिर हो और 

इस पल के बाद फिर शायद कभी न हो  

इस बात का कोई आसरा न भरोसा हो 

मगर उस पल में सौ बार जीने मरने का 

एहसास !

वही एक पल है जो हर सीमाओं को 

लांघकर तल्लीन रह जाना सिर्फ 

उस एक पल के लिए जो दिला दे वो 

एहसास !

जो शायद लफ़्ज़ों का मोहताज़ नहीं 

जिसे सिर्फ महसूस किया जाये 

ये एक सांस है जो सिर्फ ली जाए 

उस सांस में जी और संभल भी जायें  

एहसास !


~ फ़िज़ा 

Wednesday, December 02, 2020

ख़याल से नहीं न वो गए!


 

कुछ दिनों से आ रही थी ख़याल में 

बीती हुई कुछ पलछिन हादसे यादें 

हम सोचते रेह गए बस शायद थोड़ा 

हाँ ! थोड़ा रूककर बात ही कर लेते 

आखिरी बार ही मगर अलविदा सही 

जानते थे के बीमार ज़िन्दगी है कब?

आज अफ़सोस हुआ खबर ये जानकर 

ख़याल आया उन पलों का जब संग थे 

ख़ुशी जो हम दे सके एक-दूसरे को 

शायद अब वो नहीं हैं सोचने के वास्ते 

वो सभी जो सीखा-सिखाया साथ में 

वो सभी अब यादें रेह गयीं मेरे हिस्से में  

अफ़सोस तो हुआ ज़रूर जब सुना के 

वो अब नहीं रहे !!! आज बहुत याद आये !

ख़याल से नहीं न वो गए!


~ फ़िज़ा 

Saturday, November 28, 2020

रहो संग किसानों के यही है मेरे दिल का नारा

 


तपते हैं धुप में तपते ज़मीन को जोतते हैं 

मेहनत जीजान से करके सोना उगलते हैं 


धुप-छांव हो बरसात फसल प्यार से उगाते हैं 

अपना पेट भरने से पेहले औरों का पेट भरते हैं 


सदियों से तो यही है पेशा किसान का जो हैं 

बैल-ट्रेक्टर या खुद ही हल-जोतना बीज बोना


काम लगन से करना अपने देश का पेट है भरना 

मिटटी से नाता रखने वाले ज़मीन से जुड़े हुए हैं 


इसीलिए हर किसी का पेट भरने के बाद भी  

किसान खुद भूखा है अनाज से अपने हक्क से 


सरकारें आयीं और गए भी हैं गद्दी से कई यूँ भी 

देशवासियों की विकास और तरक्की के बहाने  


ये वही देश हैं जहाँ नारे लगे थे स्वतंत्र भारत में 

'जय जवान जय किसान' वही आज लड़ रहे हैं 


कब किसान होगा आज़ाद इन सभी बंधनों से 

जहाँ उसे उसका हक़ मिलेगा वो जियेगा चेन से 


एक निवाला जब रोटी का डालो अपने मुँह में 

ज़रूर याद करना जिसने काटे फसल धान्य के 


देश का किसान जब भूखा होगा दुखी होगा ऐसे 

तो उस अन्न का क्या हर्ष होगा जो खाएं गर्व से 


विभिन्नता में एकता इसी में है सबकी सद्भावना 

रहो संग किसानों के  यही है मेरे दिल का  नारा 


~ फ़िज़ा 

Saturday, November 14, 2020

दीप जलाओ दीप जलाओ आज दिवाली रे !



कोरोना के दिन,महीने निकल गए 

इनके साथ त्यौहार जन्मदिन भी 

संभलते बचते-बचाते निकल गए 

सुना छह दिनों की दिवाली अब के 

एक-दो दिन ही मनाई गयी इस साल 

न आना और न ही किसी को बुलाना 

सभी अपने-अपने संतुष्टि के अनुसार 

मना रहे होली और ये आयी दिवाली 

सोशल मीडिया न होता तो त्यौहार भी 

इस कोरोना की तरह घरों में दब जाती 

एक बात का पता चल गया इस बार 

कुछ सजने-संवरने के बहाने ही सही 

घर की सफाई हुई और चार लालटेन 

दीयों के कतार रंगोलियों में सजने लगे 

मिठाइयां घर की न सही हलवाई से ही 

घरों में रोशन हुए दिवाली के संस्कार यूँही 

पटाखों की बात अलग है पर्यावरण को सोच 

समय निर्धारित ही सही मगर फुलझड़ियां 

खुशिओं के जलाये तो होंगे न इस बार भी?

दीप जलाओ -दीप जलाओ आज दिवाली रे 

उन विषादों से घिरे चंद यादें दीप संग जलाये 

नए वस्त्र, नए कानों में कुण्डल मगर वो पल कहाँ 

जब मिट्टी के किले बनाकर राजा, मंत्री घोडा सजाते 

रंगोली से सजी गद्दी पर महाराज शिवाजी को बैठाते

दिवाली तो हम तब मनाते अब सिर्फ रस्म हैं  निभाते 

दीपावली की मगर सबको हैं शुभकामनाएं देते 

एक दिया उनके लिए भी जलाना जो नहीं हैं साथ 

एक उनके लिए भी जलाना जो हैं सरहद पर खड़े 

खुशियाँ और त्यौहार हर किसी के हिस्से बराबर नहीं आते 

एक मिठाई उनके नाम की भी किसी को ज़रूर खिलाना 

दीप जलाओ दीप जलाओ आज दिवाली रे !


~ फ़िज़ा  

Saturday, November 07, 2020

मैं खुश हूँ बहुत मेरे आंसुओं पर मत जाना



मैं खुश हूँ बहुत मेरे आंसुओं पर मत जाना 

ख़ुशी के आंसुओं की बात ही निराली है 

तब निकलते हैं जब ख़ुशी खुद बेकाबू है 

नाचूँ  झुमु गाऊं ख़ुशी से कुदुं क्या करूँ 

आज प्रातःकाल शुभकामनाओं के साथ 

डिस्काउंट में ख़ुशी का बक्सा मिल गया 

पिछले कुछ दिनों से  चिंता सता रही थी 

कहीं फिर से जनतंत्र की न हो जाए हार 

आखिर मेरे जन्मदिन का ये उपहार मिला 

मानवता का प्रतिक सम्मानित हुआ आज  

ये जन्मदिन सदियों तक रहेगा मुझे याद 

ओबामा के बाद आये बिडेन-हारिस सत्ता में 

इतिहास रचा गया हर बार और मैं खुश हूँ 

मैं इस ऐतिहासिक क्षणों का हिस्सा रही 

दोस्तों की दुआएं मोहब्बत और क्या चाइये 

आज का दिन धन्य है कई मायनों से 

मैं खुश हूँ बहुत मेरे आंसुओं पर मत जाना 


~ फ़िज़ा  

Friday, November 06, 2020

शुक्रगुज़ार हूँ मैं इस ज़िन्दगी का !


 

महीना कब शुरू हुआ कब ख़त्म 

सब कुछ तो उन्नीस- बीस है यहाँ 

कोविड ने इस तरह गले लगाया के 

किसी से गले मिलने लायक न रखा 

और इस तरह दिन-हफ्ते-महीने गुज़रे 

पता चला कल हमारा जन्मदिन है 

कहाँ साल के शुरुवात में थे अभी 

और साल ही ख़त्म होने को चला है  

यादों के कारवां में सफर करते हुए 

कई मुकाम आये और गुज़र भी गए 

बस विनीत और नम्रता ही साथ रहे 

इन सालों में एक ही सीखा ख़ुशी 

अपने अंदर ही बसती है ढूंढो नहीं 

और चीज़ें कम लगती हैं हमें जब  

प्रकृति बाहें फैलाकर देतीं है सब 

खुश हूँ जहाँ भी हूँ मैं आज दिल से 

ज़िंदादिली से जिया ज़िन्दगी को 

अब सिर्फ सविनय है साथ मेरे 

शुक्रगुज़ार हूँ मैं इस ज़िन्दगी का !


~ फ़िज़ा   

Friday, October 30, 2020

रिश्ता ही बन चूका है चाँद से ज़िन्दगी का

 



मोहब्बत तो चाँद से बहुत पुराना है 

बचपन से लेकर आज तक याराना है 

तब देखने को तरसते मचलता था मन 

नयी उमंग उठने लगीं थीं मन में उससे 

पूरे चाँद-रात को ख़ुशी से मचलते थे  

अम्मी से कहते तब पूर्णिमा की रात है 

सेवइयां बनाने की यूँही ज़िद करते थे 

मीठा खाने की या चाँद से मोहब्बत 

जो भी हो दोनों के होने का आनंद लेते 

मोहब्बत परिपक्वता की सीमा पर है 

आजकल चांदनी की सेज़ में सोते हैं 

वो भी रात-भर बैठकर सुला देता है 

डर नहीं उसके जाने का अपना जो है 

ऐसा लगता है वो हरसू मुझे निहारता है 

मिलन की सेवइयां अब खुद बनाती हूँ 

मोहब्बत का स्वाद मन ही मन सहलाती हूँ  

उसकी आगोश में यूँही फ़िज़ा महकाती हूँ

रिश्ता ही बन चूका है चाँद से ज़िन्दगी का  

अब तो हरसू कविता आंखें चार रेहती हूँ !


~ फ़िज़ा 

Friday, October 16, 2020

हताश मन

 


मन बहुत प्रताड़ित है कई दिनों से 
हाथरस के हादसे की खबर ने जैसे 
अंदर ही एक कबर खुदवा रखी ऐसे 
उसमें न समा पाती है लाश भी ऐसे 
जब उसके चिथड़े-चिथड़े हो गए हों 
जानवर की परिभाषा से भी नहीं मेल 
ऐसे भी इंसान रेहते हैं गाँव-शहर में 
जहाँ स्त्री को केवल मांस का ढेर 
समझने वाले कुछ उच्च जाती के 
खूंखार हैवान जो मांस को नौचते 
मगर नीच जात बताके न छूने का 
झूठ भी बोलते कायर हैवान ये होते 
इंसान आये दिन मर रहे हैं दुनिया में 
हैवानों का बोल-बाला है आजकल 
बेटी-बहिन -पत्नी और माँ कहाँ जायेंगे 
जब हैवानों की बस्ती में आज़ाद घूमेंगे 
इनसे भले तो जानवर जो शिकार करते 
किन्तु अपनी जात से हिंसा नहीं करते 
जितना अधिक ये सोचे हताश मन होये !

~ फ़िज़ा 


Sunday, October 04, 2020

ज़िन्दगी की सब से बड़ी पहेली है...!

 


ज़िन्दगी के धूप-छाँव तो आते-जाते हैं 

यही सीखा और समझा ये  ज़िन्दगी है 

वक्त का तकाज़ा या खेल ज़िन्दगी है 

समय के साथ ज़िन्दगी थक जाती है 

समय के साथ ज़िन्दगी साथ आती है

मगर कुछ ज़िन्दगी इस साल लायी है 

अंदाज़ और अंगड़ाइयों में जो नज़ारा है 

अफ़सोस अधिक, अन्धकार ज्यादा है 

समय के साथ ज़माने के बदलते तेवर हैं 

छोटा गया बड़ा पीड़ित इसमें हेर-फेर है 

ज़िन्दगी अब कोविड के हाथों चलती है 

इसके लपेट में कौन आएगा कौन नहीं है 

यही ज़िन्दगी की सब से बड़ी पहेली है 

अब तो हर खबर जो सुनने में आये है 

वो कोविड के नाम से एक षडयंत्र है 

नियति का या समय का रचा खेल है !


फ़िज़ा 

Monday, September 14, 2020

कमरों से कमरों का सफर


सेहर से शाम शाम से सेहर तक 
ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक 
कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक 
तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक 
ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक 
बहुत त्याग मांगती  रहती हैं जब तक 
है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक 
इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक 
ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक 
खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक 
एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक 
आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक?
तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक 
इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक 
यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक?

~ फ़िज़ा 
#हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९ 

 

Wednesday, September 09, 2020

रास्ते के दो किनारे

 



रास्ते के दो किनारे संग चलते

मिल न पाते मगर साथ रेहते  

मैं इन दोनों के बीच चलती 

भीड़ में रहकर तनहा सा लगे 

किसी अनदेखे खूंटी से जैसे 

अपने आपको बंधा सा पाती 

छूटने की कोशिश कभी करती 

फिर ख़याल आता किस से?

बहुत लम्बा है ये सफर मेरा 

कब ख़त्म होगा कहाँ मिलेगी 

ये राहें कहीं मिलेंगी भी कभी?

थकान सा हो चला है अब तो 

किसी तरुवर की छाया में अब 

विश्राम ही का हो कोई उपाय  

निश्चिन्त होकर निद्रा का सेवन 

यही लालसा रेहा गयी है मन में 

तब तक चलना है अभी और 

जाने कहाँ उस तरुवर का पता   

जिसके साये में निवारण शयन का !


~ फ़िज़ा 

Friday, August 14, 2020

आज़ादी की मुबारकबाद !




स्वतंत्रता के ७३ वर्षों के बावजूद मन अशांत है 
क्यों लगता है के पहले से भी अधिक बंधी हैं
विचारों से मन-मस्तिष्क से अभिप्राय से बंधे हैं 
जब लड़े थे आज़ादी के लिए एक जुट होकर 
हर किसी के लिए चाहते थे मिले आज़ादी 
उन्हें न सही उनकी आनेवाली नस्ल को सही 
एक इंसानियत का जस्बा था जो हमें दे गयी 
स्वंत्रता अंग्रेज़ों से उनके अत्याचारों से मुक्ति 
मगर फिर आपस में ही लड़ते रहे आजीवन 
स्वार्थ और खोखली राजनीती और गुंडागर्दी 
कैसे कहें स्वंतंत्रादिवस की शुभकामनाएं जब 
आज भी हम आधीन हैं ईर्षा और नफरत के 
देश रह गया पीछे मगर सब हैं जीतने आगे 
धीरे-धीरे आनेवाला कल भी भूल जायेगा 
आज़ादी का संघर्ष और मूल्य शहीदों का 
एक ख्वाब तब था और एक अब भी है 
चाहे पाक हो या हिंदुस्तान दोनों को है 
आज़ादी की मुबारकबाद !

~ फ़िज़ा 

Tuesday, August 11, 2020

सेहर होने का वादा...!



शाम जो ढलते हुए ग़म की चादर ओढ़ती है 
वहीं सेहर होने का वादा भी वोही करती है 

आज ये दिन कई करीबियों को ले डूबा है 
दुःख हुआ बहुत गुज़रते वक़्त का एहसास है 

दिन अच्छा गुज़रे या बुरा साँझ सब ले जाती है 
ख़ुशी-ग़म साथ हों हमेशा ये भी ज़रूरी नहीं है 

सेहर क्या लाये कल नया जैसे आज हुआ है 
एक पल दुआ तो अगले पल श्रद्धांजलि दी है 

इस शाम के ढलते दुःख के एहसास ढलते हैं 
राहत को विदा कर 'फ़िज़ा' दिल में संजोती हैं 

~ फ़िज़ा 

Saturday, August 08, 2020

उम्मीदों से भरा...




महीना अगस्त का मानों उम्मीदों से भरा 
शिकस्त चाहे उस या फिर इस पार ज़रा  
वैसे भी कलियों के आने से खुश है गुलदान 
फूल खिले न न खिले उम्मीद रहती है बनी 
हादसे कई हो जाते हैं फिर भी आँधिंयों से 
लड़कर भी वृक्ष नहीं हटते अपनी जड़ों से 
कली को देख उम्मीद तो है गुलाब का रंग 
खिलकर बदल जाए तो क्या उम्मीद तो है 
कम से कम !

~ फ़िज़ा 

Friday, July 31, 2020

क्यों जुड़ जाते हैं हम ...!

कोरोना के दिन हैं और उस पर आज शुक्रवार की शाम, इरफ़ान खान की फिल्म "क़रीब क़रीब सिंगल" देखी, जो फिल्म पहली बार में हंसी-मज़ाक ले आयी थी वही दोबारा देखने पर हंसी तो ले आयी मगर दो आंसूं भी.. ! इस ग़म को भगाने के लिए दिल बेचारा - सुशांत सींग राजपूत की फिल्म भी देख ली !
अलविदा बहुत ही मुश्किल होता है, मगर लिखना आसान !!!! ये कविता उन सभी के नाम जो अपनों को खोकर अलविदा नहीं कह पाते !!!



क्यों जुड़ जाते हैं हम 
जाने-अनजाने लोगों से 
न कोई रिश्ता न दोस्ती 
फिर भी घर कर लेते हैं 
दिल में जैसे कोई अपने 
ख़ुशी देते हैं जैसे सपने 
चंद फिल्में ही देखीं थीं 
बस दिल से अपना लिया 
कहानी को सच समझ कर 
उनके साथ हंस-रो लिया 
हकीकत की ज़िन्दगी सब 
अलग अपनी-अपनी होती हैं 
आज उनकी फिल्मों को देख 
उनके अपनों को सोच कर 
उनकी ज़िन्दगी के खालीपन 
और उनके बीते गुज़रे कल 
की यादों में रहकर जीने वाले 
सोचकर बहुत रो दिए!

~  फ़िज़ा 

Saturday, July 18, 2020

करें मुस्तकबिल बगावत का ...!




चलती तो हूँ मैं सीना तानकर 
मगर दिल में अब भी है वो डर 
कहीं खानी न पड़ जाए ठोकर 
दर ब दर !
क्यों न इस पल के हम हो जाएं 
शुक्रगुज़ार, जी लें उस पल को 
क्यों ख्वामखा करती है परेशान 
किसी अनहोनी का !
न तो जी भर के खुश भी हो सकें 
न ही ग़मगीन हों उस बात की जो 
अभी हुआ नहीं हैं बस फिर भी 
लगा रहता है डर !
आँखों के सामने अनीति नज़र आती है 
सर पे है हाथ किसी का जो करे मनमानी 
सोचते रेह जाते हैं क्या सिर्फ देखें ये सब 
या करें मुस्तकबिल बगावत का !

~ फ़िज़ा 

Wednesday, July 15, 2020

छूटता नहीं मगर रहता है मस्त में आज...


सूखे पत्ते और उस पर चलने की आवाज़ 
मन में जैसे छिपी एक आहट या आगाज़ 
मानों बरसों का इंतज़ार और वो अंदाज़ 
किसी की वो दबी यादें या अपना आज 
बातें पलछिन की जैसे कल नहीं आज 
रहते कल में खुश फिसलता हुआ आज 
जाने कब से अतीत के संग बीता आज 
छूटता नहीं मगर रहता है मस्त में आज 
क्यों पलछिन, यादें चले आते हैं आज
सूखे पत्ते जलकर दे जाते हरारत साज़ 

~ फ़िज़ा 

Sunday, June 14, 2020

जीवन तो है चलने का नाम ...!



जीवन है चलने का नाम 
देते यही सबक और धाम  
कुछ लक्ष्य जीवन के नाम 
रख देते हैं समाज में पैगाम 
चंद गंभीरता से पहुँचते मुकाम 
मगर ज़िन्दगी के ख़ुशी के नाम 
कर देते अपने  आप को कुर्बान 
ज़िन्दगी इतनी सस्ती और कम 
कब हुई दोस्तों ऐसे सरे आम 
जीवन तो है चलने का नाम 

~ फ़िज़ा 
#shradhanjali #sushantsignrajput #manasikavasaad #mentalillness #depression #seekhelp

Sunday, June 07, 2020

इंसान नहीं न तू बना?



जातिवाद क्या है ये इस कदर अज्ञात था 
प्राथमिक कक्षा में रंगभेद तो पढ़ाया गया 
मगर तब उसे औरों की परेशानी बताया 
विशेषाधिकार में जीते हैं बहुत कम जानते हैं
शायद इसी वजह से जातिवाद, अस्पृश्यता 
एक कहानी, एक खबर और एक सबक 
जो पाठशाला में सभी को पढ़ाया जाता है 
कितने इन कहानियों से हकीकत को समझते ?
इसका तो कोई भी अनुमान नहीं लगाया 
मगर परीक्षा में अंक सभी को अव्वल मिला 
पढ़-लिखकर विद्वान तो बने मगर इंसान नहीं 
भेद-भाव के लिए कुछ नहीं तो कारण कई ढूंढे
रंग-भेद , तो जातिवाद, तो कभी धर्म-भेद 
जब इन सब से दिल भर जाए सभी का तो 
लैंगिक भिन्नता को ही एक खिलौना बना दिया 
सबसे अधिक अकल्मन्द ये कैसा तू बन गया ?
सबकुछ बन गया, बहुत कुछ कमा लिया मगर 
इंसान नहीं न तू बना? इंसान नहीं तू बना!

~ फ़िज़ा 
#blacklivesmatter , #NoJusticeNoPeace, #StopRacism 

Sunday, May 31, 2020

मुझे घुटन हो रही है ..!



मुझे घुटन हो रही है 
मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ 
मुझे तकलीफ हो रही है !
ये सुनकर भी ऐसा क्या 
घृणा और ग़ुस्सा होगा 
उस इंसान में 
जो के अपने घुटने 
उसके गले से बिना हटाए 
ज़ोर लगता रहा 
तब तक 
जब तक
उसकी सांसें 
ख़त्म नहीं होतीं !
मुझे घुटन हो रही है 
ये सब देखकर 
किस ज़माने में हूँ 
मैं !
कहाँ पुरातन काल में 
सुना था बुज़र्गों से 
तो इतिहास की 
कक्षा में और 
ये उम्मीद थी के 
कलयुग में सब कुछ 
अच्छा होगा 
न्याय होगा 
भेदभाव न होगा 
जाती-धर्म का 
बंधन घर तक सिमित होगा 
पर किसी के साथ 
अन्याय न होगा 
आज मुझे घुटन हो रही है 
ये किस ओर मानव-जाती 
बढ़ रही है 
क्यों एक दूसरे के 
खून के प्यासे हो 
चली है !
मेरा दम घुटता है 
ये सोचकर के 
#गेओर्गेफ्लॉयड 
की सांस घोटकर 
उसकी जान ले ली 
और कानून के रक्षक 
ये सब कर रहे थे और 
देख भी रहे थे 
इस अन्याय को!
मेरा दम घुट रहा है 
मेरा दिल टूटा है 
मैं अपने ही नज़रों में 
गिर गया हूँ 
मैं क्या ज़माना दे रहा हूँ 
अपने कल को ?
मेरा दम घुटता है !
मुझे सांसें लेने दो!
मुझे खुली आज़ादी में 
जीने दो !

~ फ़िज़ा 

Saturday, May 23, 2020

बचपन जवानी मिले एक दूसरे से...



मेरा बचपन याद आता है इस जगह 
वही पहाड़ वही वादियां वही राह 
वही पंछी झरना और वही राग 
खुश हो जाता है मन इन्हीं सबसे 
जब बचपन जवानी मिले एक दूसरे से !
कितने अच्छे थे वो दिन सब सादगी में 
जलते सब थे मगर रहते थे अपनी धुन में 
छोटी-मोटी चाह हर किसी के दिल में 
रहते थे अपने दायरे और फासलों में 
थी ही कितनी बड़ी वो दुनिया छोटी सी !
कम में भी एक सुकून सा था जीने का 
फ़िक्र थी भी तो इतना नहीं जीने का 
एक-दूसरे की क़द्र थी दिल से मुहब्बत का 
आजकल आडंबरी हैं अपने और अपनों का 
अपनी हस्ती का बवाल मचा रखा हर तरफ का !

~ फ़िज़ा 

Friday, May 22, 2020

ज़िन्दगी यही है और कुछ भी नहीं...



खुद  में जब कोई खामियां है 
ये जानलो तो लुटा दो सब कुछ 
उन खामियों को बदलने में 
ऐसा ही कुछ हुआ था मेरे संग 
जब टेलीमार्केटिंग में औरों के
मुकाबले मैं कम थी परिश्रम से 
एक अच्छी बिक्री प्रतिनिधि बनी 
जहाँ मेरी नौकरी ४ बजे से ११ थी 
वहीं मुझे दो-तीन और काम मिले 
अब मैं सुबह ८ बजे से ११ बजे तक 
काम ही काम, अलग-अलग उत्पाद 
उत्पाद में विश्वास हो तो काम आसान 
हर उत्पाद बिकने लगा वो भी तादाद में 
शायद मेरे ख्वाब में भी न सोचा हो मैंने 
क्रेडिट कार्ड से लेकर बीमा तो बिजली 
लम्बी दुरी पर फ़ोन करने के पैकेज 
ये चीज़ें कोई खरीदेगा? वो भी फ़ोन पर?
ताज़्ज़ुब की बात है मगर सही कहा है 
दिल से दिल को राह होती है सही में !
एक मजले से दूसरे मजला और फिर 
सारे ऑफिस में मैं जानी-पहचानी हुई 
कई दोस्त बने कई प्रशंसक भी हुए 
कितनों ने दिल दिए और कितने टूटे 
कामियाबी खुशियां लाती हैं मोहब्बत भी 
ज्यादा की उम्मीद तब भी नहीं थी 
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है सो जी लिए 
मन में आस थी भारतीय क्रिकेट देखने कभी 
वो दिन भी आगया टोरंटो स्टार में खबर आयी 
हमने सोच लिया रविवार का मैच ज़रूर देखेंगे 
सोमवार से शनिवार तक का कॉल सेण्टर 
घंटे के प्रति १० डॉलर डूबते को तिनके का सहारा 
उस पर चार उत्पाद को बेचना ८ से रात के ११ 
भारत और पाकिस्तान का मैच सहारा कप 
देखने को मिला और सचिन और अज़हर को 
बैटिंग करते भी देखा जो एक आस थी पूरा हुआ 
आम इंसान और जाने-माने हस्तियों से 
हाथ मिलाकर बातें की और हाल-चाल पूछे 
रवि शास्त्री भी थे इसमें शामिल समीक्षक 
दादा, आज भी मगर एक दृश्य दिल मैं उतरी 
पाकिस्तानी और भारतीय खिलाड़ी एक साथ 
मैच-प्रैक्टिस और कसरत करते हुए मदत करते हुए 
ज़िन्दगी यही है और कुछ भी नहीं सिवाय मुहब्बत के !

~ फ़िज़ा 

Monday, May 18, 2020

मेरा पहला अनुभव था !



ज़िन्दगी अकेले जीने के मज़े अलग हैं 
जहाँ मौज समझते हैं वहीँ मायूसी भी 
लेकिन अगर अपना लक्ष्य साध लो 
फिर कोई तुम्हें नहीं रोक-टोक सकेगा 
मेरा लक्ष्य यहाँ तात्कालिक ठहरना था 
कॉल सेण्टर में सेल्स में ध्यान देना था 
प्रशिक्षण को गंभीरता से लिया और
उत्पाद को बेचना है उसे बेहतर जाना 
उसके फायदे को समझ अपने लिए सोचा 
एक बात अपने बारे में ये तैय थी 
अगर दिल को भा गया उत्पाद तो फिर 
किसी को भी बेचने में मुश्किल नहीं होती 
मैंने इसी तरह दिल से बेचे वो सारे उत्पाद 
जहाँ कभी भी बेचने का हौसला नहीं था 
वहीं दर्जनों के हिसाब से मैंने उत्पाद बेचे 
मेरी नौकरी अजीब थी बेचना काम था 
मगर शाम ४ बजे  ११ बजे तक रात के 
लोगों के घर पहुँचती जहाँ अभी ९ न बजे हों 
दर-दर जाकर सेल्स करते सुना था देखा भी 
मगर फ़ोन पर टेलीमार्केटिंग करते हुए ये 
मेरा पहला अनुभव था !

~ फ़िज़ा 

Thursday, May 14, 2020

समायोजित करलो !


प्रशिक्षण जिस तरह से दिया गया 
उस से लगा कुछ बिक्री करना है 
मेरी परिस्तिथि ऐसी भी नहीं थी  
मना करके निकल जाऊँ वहां से 
कभी-कभी लगता है वो अहंकार है 
मेरे लिए कोई और चारा भी नहीं था 
पढ़ाई यहाँ महंगी है बहुत ये जाना 
नसीब से सीखने मिला सीख लिया 
बात तय थी जहाँ से भी हो सीख लो 
उपयोग हर स्तिथि पर काम आएगा 
दो दिन के कठिन प्रशिक्षण के बाद 
हमसे कहा गया अपनी जान डाल तो 
कॉल सेण्टर में बिक्री करने के लिए 
जब हर कोई हमें राय दे रहे थे के सेल्स 
की नौकरी  करलो अंग्रेजी अच्छी बोलती हो 
तब पसीने छूटते थे, अब भी कम नहीं था 
अब तक ऑफिस के कपड़ों की ज़रुरत नहीं थी 
रेस्टोरेंट में वहां का यूनिफार्म था एप्रन था 
यहाँ तो रोज़ अच्छे सलीके से प्रोफेशनल होना है 
मराठी महिला से हमने अपनी दुविधा कही 
वो हमें लेकर गयी गुडविल की दुकान में 
यहाँ कपडे दान देते हैं फिर उसे बेचा जाता है 
कुछ एकाध कपडे खरीदे दफ्तर के लिए 
इन सब से महिला खुश नहीं थी कुछ 
उन्हें पता नहीं क्यों ऐसा लगा जैसे के 
मैं उनसे ज्यादा कमा लूंगी या कुछ और 
जो भी हो मुझे वहां से जल्दी ही निकलना पड़ा 
महिला ने एक दिन चेतावनी दी अपना घर देख लो 
फिर क्या था वहीं पास में २५ सेंट डेनिस ड्राइव पर 
एक अपार्टमेंट किराये पर ले लिया आठवां मंजिल 
यहाँ मेरी अपनी दुनिया और अपना नियम 
पेहले पहल तो डरती थी क्यूंकि नयी जो थी 
कभी अकेले रही नहीं अब तक यहाँ आकर 
पहले पादरी के घर तो अब मराठी महिला के घर 
इन दोनों को मेरा तेहे -दिल से शुक्रिया 
क्यूंकि आज मैं हर किसी को राय देती हूँ 
रहो तो अकेले वर्ना रूममेट्स के साथ 
समायोजित करलो  !

~ फ़िज़ा 

Wednesday, May 13, 2020

औरत को कौन जान पाया है?


औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी 
हर किसी को ये एक देखने और 
छुने की वस्तु मात्र है तभी तो 
हर कोई उसके बाहरी खूबसूरती 
को ही निहारता है या फिर 
नुख्स निकालता है !
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !
उसके पैदा होने से लेकर 
उसकी खूसबसुरति और नियति 
दोनों का ही भविष्य निर्धारित है 
या तो बहुतों के दिल जलायेगी 
या फिर खुद किसी दिन जल जाएगी !
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !
उसके लड़कपन पहुँचने तक उसकी 
ज़िन्दगी हॉर्मोन्स की चपेट में आ जाता है 
उसकी खूबसूरती का अनुमान फिर लगाया जाता है 
उसके मुहांसे, उसका कद, उसका शरीर उसके लिए 
एक मापने का यन्त्र बन जाता है 
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !
लड़कपन से कब जवानी आयी और गयी 
उसके तो हाथ भी पीले कर दिए और 
अब वो दो-चार बच्चों की माँ बन गयी 
तब भी बाहरी खूबसूरती की ही चर्चा रही 
उसके हॉर्मोन्स उसका पीछा नहीं छोड़ पायी 
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !
उसकी जवानी, उसका अस्तित्व कौन जानें 
सब कुछ तो कोई और तैय करे 
बच्चे बड़े होगये तो क्या उसकी जिम्मेदारी वही
मगर हॉर्मोन्स के खेल अब भी कम नहीं हुए 
वो अब रजोनिवृत्ति के दायरे से गुजरने लगी 
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !
वो इस तरफ तो कभी उस तरफ संतुलन के 
उसे खुद नहीं खबर उसके मानसिक हाल की 
आज आसमान ऊपर तो पल में नीचे है उसके 
उसकी जवानी के सिर्फ किस्से रेहा जाते हैं 
कभी जवानी में सराहे नहीं बल्कि अब याद दिलाये जाते हैं 
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी ! 
वो खुद भी नहीं जानती उसे क्या हो रहा है 
उसकी मानसिक और शारीरिक यातना 
क्यों बदलती है रोज़ अचानक 
क्यों उसकी उम्र होने पर भी 
उसकी तकलीफों का कोई अंत नहीं 
औरत को कौन जान पाया है?
खुद औरत, औरत का न जान पायी !


~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...