Monday, September 14, 2020

कमरों से कमरों का सफर


सेहर से शाम शाम से सेहर तक 
ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक 
कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक 
तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक 
ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक 
बहुत त्याग मांगती  रहती हैं जब तक 
है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक 
इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक 
ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक 
खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक 
एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक 
आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक?
तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक 
इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक 
यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक?

~ फ़िज़ा 
#हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९ 

 

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर सृजन। हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

Prakash Sah said...

मानो हर एक पंक्ति मेरा सत्य हो। सृजनकर्ता का यही लक्ष्य होता है कि पाठक स्वयं को रचना में सम्मिलित कर ले।
जी आपने विषय वस्तु का चयन बेहतरीन किया है।

Dawn said...


@yashoda Agrawal: आपका बहुत बहुत शुक्रिया मेरी इस कृति को सराहने और अपनी श्रंखला में शामिल करने का आभार !

@ सुशील कुमार जोशी : आपका बहुत बहुत शुक्रिया !

@ Prakash Sah: आपका बहुत -बहुत शुक्रिया इस तरह से सराहने का !

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