Sunday, September 13, 2015

फिर उस मोड़ पर आगये हम ....!



उसने उस दिन हाथ ही नहीं उठाया 
मगर चीज़ें फ़ेंक भी दिया था !
सिर्फ चहरे की जगह ज़मीन आगयी 
फिर उस मोड़ पर आगये हम 
अकेले आये थे अकेले जायेंगे हम 
चाहे धर्म से आये या नास्तिक बनके 
जाना तो सभी को एक ही है रस्ते 
क्या तेरा है क्या मेरा है 
जो आज है बंधन वो कहाँ कल है 
जो कल था वो आज हो कहाँ ज़रूरी है 
ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वह रात 
एक अनजान रात में हसीं हादसे के साथ !

~ फ़िज़ा  

Thursday, September 03, 2015

कहाँ आगया, हाय इंसान!!!.....

नन्हा सा ही था मगर 
उसके भी थे हौसले निडर 
चाहता भी वो यही था 
जी लूँ किसी कदर 
बच सकूँ तो ज़िन्दगी 
नहीं तो मौत ही सही !

कितना सहारा हमने दिया?
कितनी मदत हमने दी ?
कुछ न कर सके तो क्या?
जीने का तो हक़ ही था 
काहे ऐसी नौबत लायी 
सहारे की आड़ में डूब गया 
जीने की एक चाह ने 
कहाँ से कहाँ इंसान को पहुंचा दिया ?

क्या था उसका कसूर?
इंसान होने की ये सजा?
क्यों नहीं वो पंछी बना 
उड़ जाता जहाँ दिल कहे 
जी लेता वो भी चंद साँसे 
क्या मिला इंसान बनके?
क्या किया इंसान ने ?
जहाँ एक -दूसरे के दुश्मन बने 
कहाँ आगया, हाय इंसान!!!
लानत है!

~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...