Thursday, December 13, 2007

मेरे सपनों की बुनी एक किताब

ज़िदंगी में सपने कौन नहीं देखता...और फिर उन्‍हीं सपनों को सच करना एक ख्‍वाब से बढ़कर कुछ नहीं होता, तब तक जब तक कोई आपको प्रोत्‍साहित नहीं करता. जी हाँ, मैं दोस्‍तों की बात कर रही हूँ. मैंने एक सपना देखा है अपनी कविता की एक किताब...जो के मैं अपने मित्रों और निकटजनों की सहायता से और आप सभी साथियों के आशि॔वाद से नये साल की फरवरी महीने की चौदह तारिख तक पबलिश करने का प्रयत्‍न कर रही हूँ. आशा है मुझे आप सभी का सहयोग प्राप्‍त होगा...

ज़िंदगी में एक ख्‍वाब
मैंने भी बुना है

मन ही मन कुछ सिला है
पुरे होने की आरजू़ है
लेकिन साथ मेरा कोई दे..!?!

इसी की आकाँशा है!
दोस्‍तों का साथ हो

बडों का आशि॔वाद हो
मेरे सपनों की बुनी एक किताब
कहो! है न मेरे सर पर आपका हाथ?

~फिज़ा

Monday, December 03, 2007

तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं?

अकसर दिल में छुपी बातों का इज़हार चेहरा या फिर आँखें कर ही देतीं हैं चाहे लाख कोई उसे छुपाये
ऐसे ही एक पल को दर्शाते हुऐ कुछ कडियों को जोडने का प्रयास किया है...
उम्‍मीद है मेरे दोस्‍त इसिलाह ज़रुर करेंगे...

जब भी उनसे मुलाकात होती है
हालत-ए-दिल अजब सी होती है
चेहरा कुछ तो निगाह कुछ होती है
तबियत फिर कुछ खराब होती है
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं?

जब मेरे आँगन के झूले में वो
लपक के खुशी से झुमते हैं
मन ही मन में मुस्‍कुरा के फिर वो
चुप-चाप से हो जाते हैं...
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं?

इतनी इज़हार-ए-खुशी के बाद भी
आँखें क्‍यों सच बोलती हैं
क्‍यों नहीं छुपाया जाता फिर
दिल में पिन्‍हा जो बात होती है...
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं?

~ फिजा़

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...