Friday, July 22, 2016

क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?


आज यूँ ही बहुत देर तक सोचती रही 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 
जहां मैं जाना चाहूँ !
कितनी बेड़ियां हैं 
पैरों पर कर्त्तव्य के 
तो हाथ बंधे हैं 
उत्तरदायित्व में 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां !
पूछते सभी हरदम 
क्या करना चाहोगी 
गर मिला जो मौका 
सोचने से भी घबराऊँ 
क्यूंकि दाना-पानी 
खाना -पीना जीवन की कहानी 
फिर दिल की रजामंदी 
कैसे होगी पूरी 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 
जहाँ जरूरतों में 
बाँटू प्यार -मोहब्बत 
दूँ मैं औरों को हौसला 
दो निवाला मैं भी खाऊँ 
दो उनको भी दे सकूं 
क्यों मैं हूँ यहाँ? क्यों?
क्यों नहीं मैं हूँ वहां 

~ फ़िज़ा 

Friday, July 08, 2016

क्या रंग है अापका?


मुझसे न देखा गया 
उसका ढंग 
उसका ये तरंग 
सिर्फ काफी था उसका रंग !
अब सब साफ नज़र अाता था 
सभी तोहमतें उसपर 
सभी इल्ज़ाम उसपर 
क्यूंकि उसका था ही ऐसा रंग 
होश खो बैठा, करने लगा जंग  
देखा जो लाल खून उसका भी 
मेरा भी है तो एक जैसा ही रंग 
क्या मिलेगा काटकर अंग 
घूम हो जाएंगे इसमें  तंग
कल जब ढूँढोगे मुल्कों 
न मिलेगा कोई साथी-संग
तब लगेगा सबकुछ बेरंग 
तरसोगे लेके दिल की उमंग 
 क्या रंग है अापका?
क्या ढंग है अापका? 
जाने क्यूँ लगते हो 
जाने-पहचाने  रिश्ते का 
हैं तो सब अपने अम्मा के 
लाए क्यूँ नही वो प्यार 
जो लिया था मगर दिया नहीं 
किसी और को !
कहां रखते हो इतनी नफरत 
कहां लेके जाओगे 
इतनी नफरत जो खत्म न हो 
इस जहां में जब लोग ही खत्म हो जाएंगे !

~ फ़िज़ा 

Friday, July 01, 2016

अक्षरों से खेलते-खेलते ...!


अक्षरों से खेलते-खेलते 
कब ये शब्द बन गए 
पता ही न चला! 
शब्दों की लड़ियों ने 
जाने क्या नए मायने 
सीखाए!
मैं अक्षरों से खेलती रही 
शब्द मेरे संग खेलते रहे 
यूँ ही !
जाने क्या सोचकर 
वो मुझ से दिल लगा बैठे 
मैं भी यूँ ही !
अांखमिचोली में कब 
एक-दूसरे के हो गए 
पता ही नहीं !
किसी ने कहा पद 
किसी ने कविता 
जाने क्यूँ ?
सोचते-सोचते शाम 
ढल चुकी फिर न सोचा 
जब चांद निकल अाया !!

~ फ़िज़ा 

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...