Tuesday, February 28, 2017

हाय-हाय करती 'फ़िज़ा' ऐसे सोच-विचार का


दिल शर्म से झुक जाता है मेरा 
जब नौजवानों को पाती हूँ हारा 
क्या ये है, नर-नारी भेदभाव का खेल सारा? 
या फिर है किसी की घबराहट का इशारा? 
लगे मिलकर तोड़ने साहस उस दिलेर का 
नाम 'गुरमेहर कौर' जो है मात्र एक छात्रा   
चुप न रेह सकी वो कायरों की तरह 
देख अन्याय होते अपने दोस्तों पर 
क्या गुनाह किया है जनतंत्र में उसने 
दिल की आवाज़ उठाई निष्कलंक होकर 
साथ देने के बदले धमकियाँ दे रहे कायर  
जो दे गालियां और धमकाए बलात्कार 
या फिर न जीवित रखने की ललकार 
किस तरह चुप करने की जुस्तजू है ये 
जो सच को सुनकर घबरा गया हो 
कलयुग का हो ज़माना ये मगर 
आज भी सत्यमेव जयते ही है नारा 
चाहे फिर हो ये राजनीती का खेल सारा 
धन्य वो देश होगा जब करेंगे आदर नारी का 
वर्ना वो भी नारी है जिसकी कोख से 
जन्में है हैवान रूप लेकर इंसानो का 
हाय-हाय करती 'फ़िज़ा' ऐसे सोच-विचार का 
साथ न दे सको सत्य का तो कम से कम 
रोड़ा न बनो किसी होसलेमंदों का !

~ फ़िज़ा   

Wednesday, February 15, 2017

एक चेहरा ऐसा भी था भीड़ में ...

चेहरा खिला गुलाब सा 
आँखें पुरनम सी हरदम 
उसकी हँसी में वो बांकपन 
उसकी खिलखिलाती हंसी 
सिर्फ एक ज़िन्दगी की आस
एक वो लम्हा हंस के मर जाने की 
तो जी उठने की वो लालसा फिर से 
दुनिया जीती थी उसकी इस अदा पे 
वो जो किसी को जीना सीखा दे 
उसका भी एक अक्स था छिपा सा 
जो शायद कोई देख न पाया 
या जीने की आस में सोच नहीं पाया ?
खिले चेहरे के पीछे एक हकीकत थी
उसकी आँखों में हमेशा एक नमीं थी
उसकी हंसी के पीछे एक राज़ था 
उसकी खिलखिलाहट में दर्द था 
जो सिर्फ जूझ रही थी जीने के लिए 
वो जो पल में जीकर मरजाने के लिए
हतेली पर लिए ज़िन्दगी चली थी कभी 
आज भी है उसकी वही लड़ाई ज़ारी
कर औरों को बुलंद इसी में रह गयी 
सोच न सकी कभी अपनी भलाई 
एक चेहरा ऐसा भी था भीड़ में 
जो कभी नहीं मुरझाई !

~ फ़िज़ा 

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...