Friday, July 31, 2020

क्यों जुड़ जाते हैं हम ...!

कोरोना के दिन हैं और उस पर आज शुक्रवार की शाम, इरफ़ान खान की फिल्म "क़रीब क़रीब सिंगल" देखी, जो फिल्म पहली बार में हंसी-मज़ाक ले आयी थी वही दोबारा देखने पर हंसी तो ले आयी मगर दो आंसूं भी.. ! इस ग़म को भगाने के लिए दिल बेचारा - सुशांत सींग राजपूत की फिल्म भी देख ली !
अलविदा बहुत ही मुश्किल होता है, मगर लिखना आसान !!!! ये कविता उन सभी के नाम जो अपनों को खोकर अलविदा नहीं कह पाते !!!



क्यों जुड़ जाते हैं हम 
जाने-अनजाने लोगों से 
न कोई रिश्ता न दोस्ती 
फिर भी घर कर लेते हैं 
दिल में जैसे कोई अपने 
ख़ुशी देते हैं जैसे सपने 
चंद फिल्में ही देखीं थीं 
बस दिल से अपना लिया 
कहानी को सच समझ कर 
उनके साथ हंस-रो लिया 
हकीकत की ज़िन्दगी सब 
अलग अपनी-अपनी होती हैं 
आज उनकी फिल्मों को देख 
उनके अपनों को सोच कर 
उनकी ज़िन्दगी के खालीपन 
और उनके बीते गुज़रे कल 
की यादों में रहकर जीने वाले 
सोचकर बहुत रो दिए!

~  फ़िज़ा 

Saturday, July 18, 2020

करें मुस्तकबिल बगावत का ...!




चलती तो हूँ मैं सीना तानकर 
मगर दिल में अब भी है वो डर 
कहीं खानी न पड़ जाए ठोकर 
दर ब दर !
क्यों न इस पल के हम हो जाएं 
शुक्रगुज़ार, जी लें उस पल को 
क्यों ख्वामखा करती है परेशान 
किसी अनहोनी का !
न तो जी भर के खुश भी हो सकें 
न ही ग़मगीन हों उस बात की जो 
अभी हुआ नहीं हैं बस फिर भी 
लगा रहता है डर !
आँखों के सामने अनीति नज़र आती है 
सर पे है हाथ किसी का जो करे मनमानी 
सोचते रेह जाते हैं क्या सिर्फ देखें ये सब 
या करें मुस्तकबिल बगावत का !

~ फ़िज़ा 

Wednesday, July 15, 2020

छूटता नहीं मगर रहता है मस्त में आज...


सूखे पत्ते और उस पर चलने की आवाज़ 
मन में जैसे छिपी एक आहट या आगाज़ 
मानों बरसों का इंतज़ार और वो अंदाज़ 
किसी की वो दबी यादें या अपना आज 
बातें पलछिन की जैसे कल नहीं आज 
रहते कल में खुश फिसलता हुआ आज 
जाने कब से अतीत के संग बीता आज 
छूटता नहीं मगर रहता है मस्त में आज 
क्यों पलछिन, यादें चले आते हैं आज
सूखे पत्ते जलकर दे जाते हरारत साज़ 

~ फ़िज़ा 

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...