जिंदगी में हर कोई अपने- अपने अरमान लिये हुये आता है और शायद उसे पूरा करने या होने की आरजू़ में ही जिंदगी गुजा़र देता है...मेरी भी कोशिश यहाँ उन आरजूओं की सोच, कल्पना और उन सोचों में पडे़ एहसासों को पेश करना है। कहाँ तक सफल हुई हूँ ये मैं आप सभी पर छोड़ती हूँ...... आपकी मुंतजि़र ख्यालों के पन्ने उलटती रेहती हूँ जिंदगी की स्याही घिसती रेहती हूँ नये पन्ने जोड़ने की आरजू़ में, नीत-नये दिन खोजती रेहती हूँ जीवन के पुस्तकालय में, 'मधुशाला' को ढुँढती रेहती हूँ शब्दकोश के इस भँडार से जीवनरस निचोडती रेहती हूँ स्याही-कलम के बिना भी लिखे गये हैं ग्रंथ कई मेरे कलम में आज भी मैं, रंग भरती रेहती हूँ अब के खुशियों से भरे जीवन की हकीकत पर पन्ना-पन्ना जोडकर उपन्यास लिखने की आरजू़ में रेहती हूँ कौन से दो नयन मैं उधार लाऊँ जहाँ मेरी इस उपन्यास को सच्चाई की एक दुकान मिले मैं अब भी हिम्मत जुटाते रेहती हूँ मैं अब भी टूटती पंक्तियों को जोडती हूँ मैं अब भी एक किताब लिखने का हौसला रखती हूँ बोलो, क्या इसे कोई खरीदेगा?? जीवन के वो बोल समझ पायेगा?? खून की स्याही, से सींचकर रखी इस किताब को ...