हम कहाँ के हैं इंसान....?
आज दिल कुछ बोझल सा है ये दिल भी कितना नादान है....जाने कब की लिखी बातें होतीं हैं और इस पर असर कर जातीं हैं ऐसा ही कुछ दिल का हाल है....वाकई में हम कहाँ के इंसान हैं...जो कभी किसी के बारे में सोचते ही नहीं आज ऐसे ही कुछ बातों को लेकर...एक दिल झंझोडने वाली कविता पेश ए खिदमत है....
उमर ढलती जा रही है
जिंदगी शरमा रही है
इस मकान की चौखट से
माँ ये गाना गा रही है
सामने लेटा है बचचा
और वो सुला रही है
बरतनों में सिरफ पानी
आग पर चढा रही है
बासी रोटियों के टुकडे
समझकर अमरित खा रही है
सामने बडा सा घर है
जिस से रोशनी आ रही है
खूब हंगामा मचा है
मौसगी बहार आ रही है
साज् पे थरकते लोग
मगरिब जिला पा रही है
हम कहाँ के हैं इंसान
समझ कयों नहीं आ रही है ?
~ फिजा
उमर ढलती जा रही है
जिंदगी शरमा रही है
इस मकान की चौखट से
माँ ये गाना गा रही है
सामने लेटा है बचचा
और वो सुला रही है
बरतनों में सिरफ पानी
आग पर चढा रही है
बासी रोटियों के टुकडे
समझकर अमरित खा रही है
सामने बडा सा घर है
जिस से रोशनी आ रही है
खूब हंगामा मचा है
मौसगी बहार आ रही है
साज् पे थरकते लोग
मगरिब जिला पा रही है
हम कहाँ के हैं इंसान
समझ कयों नहीं आ रही है ?
~ फिजा
Comments
koi tippni nahi.
gambheerta mere vyaktitva me bahut hi kam aati hai.
ये कविता बहुत ही सरल और असरकारक है | अच्छी लगी |
अनुनाद
सेहर
@कुमार चेतन: आपकी बातें गंभीरता में भी हँसा देते हैं... टिप्पणी तो करनी ही होगी...आखिर हमारा मार्गदर्शन कौन
करेगा...आते रहिऐ..
सेहर
@अनुनाद सिंह: आपका स्वागत है.... सेहर में..कविता पसंद करने का बहुत-बहुत शुक्रिया..उम्मीद है आगे भी आप हमारा हौसला बढाऐंगें......आते रहिऐगा..
आपकी आभारी.....सेहर
shukriya yahan aakar padhne ka aur tippani dene ka
Khush rahein sada
:)