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Showing posts from 2017

यादों के काफिले घूमते रहे ऐसे...!

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कुछ इस तरह दिन गुज़रते हैं  यादों के काफिले घूमते हैं  काले बादलों की तरह जैसे  कब बरसें तो अब बरसें  बदल यूँही मंडराते रहते हैं  एक आस और अंदेशा जैसे  दिलों को दिलासा दिए जाते हैं  इस तरह, यादों के काफिले घूमते हैं ! पूछती है मुझसे हर कली बाग़ में  किसे ढूंढ़ते हो क्यारियों में ऐसे  जाने क्या सोचकर हंस दिए वो  जब कहा मैंने बादलों के बरसे  मोतियाँ बटोरने आया हूँ मैं कब से  कली मुस्कुरायी और बोली मुझसे  यहाँ फूल बन ने तक रखता है कौन?  इस तरह , यादों के काफिले फिर घूमते रहे! सुना है गुलदान में रखते हैं फूलों को सजाके  चलो फिर गुलदान ही को ढूंढा जाए  यूँही फिर सफर चलता रहा मगर ऐसे  के यादों के काफिले घूमते रहे ऐसे !! ~ फ़िज़ा 

मुलाकात अभी बाकी है ....!

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ज़िन्दगी में बहुत दोस्त मिलते हैं  मगर ऐसे बहुत कम मिलते हैं   जो खुद को बहुत छोटा और   दूसरों को बहुत ऊपर देखते हैं   ऐसा महसूस कराने वाले   ज़िन्दगी में कम मिलते हैं   दोस्ती कैसे निभाते हैं कोई   आपसे सीखे जो मीलों दूर   महीनों बिना बतियाये फिर भी   हाल-चाल की खबर रखते   सफर जब घर की तरफ हो   घर ठहराए बिना नहीं भेजते   हमेशा छोटे बच्चों की तरह   हर ख्वाइश पूरी करते रहते   गर अकेला महसूस भी किया   तो परिवारों के बारे में सोचा उनके   जो काम करते थे दफ्तर में आपके   जीवन से हताश न होना और साहस   औरों को देना ज़िन्दगी की यही   परिभाषा अपनायी आपने जाने लोग कितनी भी उम्र लगालें   आप उस मासूम बच्चे की तरह   उत्सुक और नयी तरकीबों को   सोचते रहे और फिल्म बनाते रहे   आज भी सभी को इस कदर छोड़ा   के सब ज़िन्दगी की यादों में   बहक गए ! वाह ! नीरज,   यहाँ भी अपने अंदाज़ में चले चलो कोई नहीं मुलाकात   अभी...

भंवरें भी गुंजन गायेंगे !

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पतझड़ का मौसम आया  और चला भी जायेगा  पुराने पत्ते खाद बन कर  नए कोपलें शाख पर  सजायेंगे ! तन्हाई भी कभी रूकती नहीं     रहगुजर मिल ही जायेगा  नए साथी होंगे समझनेवाले   ज़िन्दगी के स्केच में रंग  भरेंगे! ग़मों का बादल बरस गया  हरियाली से चमन भर जायेगा नयी खुशबु लिए मौसम ज़रा  फूलों के संग भंवरें भी  गुंजन गायेंगे ! ~ फ़िज़ा    

ज़िन्दगी भी कभी थमती नहीं है ...

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ज़िन्दगी की शाम जब होती है  तभी सुबह की तैयारी होती है  बात सही मानो तभी होती है  जब मुद्दा समझायी जाती है  हर एक बात की हद्द होती है  उसके बाद ज़िद्द ही होती है  वक़्त बे-वक़्त समझ होती है  तब तक बहुत देर हो जाती है  हर शाम के बाद सुबह होती है  सुबह से ज़िन्दगी शुरू होती है  समय का क्या, रूकती नहीं है  ज़िन्दगी भी कभी थमती नहीं है  चाँद भी अब मुस्कुराता नहीं है  जाने कितनी रातें आया नहीं है   पतझड़ के पत्तों की तरह होती है  नयी पंखुरी फिर निकल आती है  ~ फ़िज़ा 

मना करें कब ये तैय करें कैसे?

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धीरज की भी एक हद होती है  उसके कुछ कायदे-कानून होते हैं  किसी के रोंदने की चीज़ नहीं ये  मना करें कब ये तैय करें कैसे? जीना है ज़िंदादिली से ये सच है  क्यों जीना छोड़कर तनाव में रहें? तनावभरी ज़िन्दगी क्यों?जीने के लिए? जीने के लिए जीना ये तैय करें कब? प्रबंधक का शोषण होता नहीं बर्दाश्त बात को सजकता से लेना आदत सही   क्यों सहें और कैद करें डर को अंदर? तोड़ दूँ ये शृंखला? जीना है जब निडर! ~ फ़िज़ा 

मेरा बचपन खो गया कहीं!

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आज कहीं मेरा बचपन खो गया  एक बहुत बड़ा हिस्सा बचपन का  जिसे संवारने में मामा का प्यार था  शांत किन्तु गंभीर स्वाभाव के थे  मगर दिल के प्यारे और गुनी थे  उनकी दुलारी सबसे प्यारी भांजी  कोई और नहीं मगर मैं थी! जहाँ भी रहे हम पास या दूर  दिल में प्यार की गर्मी नहीं हुई कम  वक़्त मिले जब भी मिलने आये हम  फिर एक ऐसा भी वक़्त आया  अस्वस्थ की खबर ले गया हमें फिर  वहीं उनसे पुराने दिनों की यादों को  संग लिए दिल में मिलने चले थे  खुश था दिल वक़्त बे वक़्त ही सही  नज़रों के सामने थे तो सही मगर  ज़िन्दगी का भी एक ऐसा खेल है  जब सब कुछ अच्छा हो ऐसा लगे  तभी उसकी चाल बेहाल करे ! आज विदाई का दिन है ऐसा  कहा जब मुझ से सवेरे सवेरे  दिल एक पल के लिए हो गया  बोझल, मेरा बचपन खो गया कहीं! अब तो बस रहा गयीं यादें जो  सताएंगी हमेशा मुझे! ~ फ़िज़ा 

तुमसे बेहतर हम यहाँ ...!

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शुष्क हवा में विचरण करते  एक पंछी ने पुछा मुझ से  ऐसा सुनने में आया है कब से  बँधे हैं पैर खुले हैं हाथ तुम्हारे? लिखना-पढ़ना सब जानते हो  स्वतंत्र मन से कुछ नहीं करते! सच बोलने और लिखने से  मिलते हैं धमकियाँ क़त्ल के  गाय का मांस खाने से  गँवा बैठेंगे ज़िंदगियाँ ऐसे  सरकार जो भी करे और कहे  आज्ञा का पालन करते जाएं ! परिंदों ने हसंकर कहा  तुमसे बेहतर हम यहाँ  उड़ते इस मुक्त गगन में  आज़ादी से खुशगवार  तुम तो फिर भी बंधे हो  सामाजिक बेड़ियों तले ! ~ फ़िज़ा 

दूसरों के फटेहाल का आनदं ही कुछ और है !

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दुनिया में लोगों के पास वक़्त ही नहीं   औरों के झमेलों में जाने जाया कितना किया ! तमाशा कोई कितना करे या न करे मगर  दुनिया औरों के तमाशे में मज़े खूब लेती है ! अपनी तो हालत है ही निराशाजनक किंतु  दूसरों के फटेहाल का आनदं ही कुछ और है ! कितना हँसोगे औरों के ग़म में यारा तुम  दो आंसूं अपने लिए भी बचाके रखना ! कहते हैं वो औरों से सब जानते हैं हाल हमारा  'फ़िज़ा' को भी पता चले कौन है वो हमारा? ~ फ़िज़ा 

वो शाम याद आती है मुझे ...!

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वो शाम याद आती है मुझे  जब रंगोली से भरा बरामदा  और दीयों की कतार में  रौशनी का हवा से बतियाना  लोगों की चहल-पहल तो  कहीं बच्चों का उल्लास  हर तरफ रौशनी और  हर किसी के मुख में मिठाई  दोनों हाथों में भरा पटाखा  कभी में जलाऊं तो कभी वो  खेलते-खाते गुज़र जाते  छे के छे दिन  आता जब सातवे की सुबह  हर तरफ कागज़ों की  बिछी कालीन  जमा करते सभी एक ओर  लगते उसमें भी आग हलकी सी  जाने कुछ बची हुई लड़ी ही सही  आग सेख़ते -सेख़ते बज उठतीं  यूँही दिवाली को करते अलविदा  मिठाइयों की मिठास से  करते परहेज़ खाने से  फिर देखो थालियों से भरा  मिठाई का डब्बा घर में आ चला  देखते -देखते एक और साल  निकल गया !  ~ फ़िज़ा 

मोहब्बत ही न होता तो मैं कहाँ होता?

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मोहब्बत में मैं नहीं होता तो खुदा होता  मोहब्बत ही न होता तो मैं कहाँ होता? फ़िज़ा में दिन नहीं होता तो क्या होता?  दिन नहीं जब होता तब रात ही होता  दरख़्त में पत्ते,शगोफा, खार तो होता  गर शगोफा होता तो गुल ज़रूर होता  आसमां पर अफ़ताब दिन में ज़रूर होता  शब् पे कोई हो न हो माहताब ज़रूर होता  ज़िन्दगी मसरत नहीं होता गर ग़म न होता  ज़िन्दगी क्या होता गर वफ़ात नहीं होता ? ~ फ़िज़ा   

क्यों? किस लिए? क्या पाया? क्या मिला?

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एक आवाज़ और गोली ने भून दिया  सबको छलनी-छलनी कर दिया  हर तरफ लहू का गलीचा बिछा दिया  चीखते-चिल्लाते, बिलखते बचते-बचाते  सुर्ख़ियों में लरजते कुछ ज़िन्दगियाँ  मरने वाला भी न रहा और मारने वाला भी  जाने कौन देस से था वो हाड़ -मांस का  किस बात की तमन्ना पूरी कर गया यूँ  के बचे लोगों में सवाल बनके रहा गया  क्यों? किस लिए? क्या पाया? क्या मिला? सृष्टि का खेल या दिमागी असमंजस  हैवानियत का एक और प्रदर्शन दूरदर्शन पर था!    ~ फ़िज़ा 

समय-समय की बात है धैर्य, सैय्यम 'फ़िज़ा'

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कोई दूर होने के लिए दूर करता है  कोई अपनी नफरत जताने के लिए !  किसी को नीचा दिखाकर मज़ा आता है   कोई अपना बड्डपन जताकर करता है ! इंसान कहाँ तक जायेगा अहम् लेकर खुद भी जलेगा, सिर्फ खुद ही जलेगा ! रंगमंच पर सभी आते हैं निभाने किरदार   दृश्य भी बदल जायेगा स्थल के अनुसार ! ढूंढो तो जहाँ में क्या नहीं मिल जाता  इंसान को इंसान मिलते लगती नहीं देर! समय-समय की बात है धैर्य, सैय्यम 'फ़िज़ा'  वक़्त आएगा जहाँ में कोई तो होगा अपना वहां !    ~ फ़िज़ा 

अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता हक़ है हर एक का !!

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हैवानियत पर उतर आये लोग  जब किसीने दिखाया आईना आईना था ही इतना भयंकर  खुद भी न देख सके चेहरा  प्रतिरूप देख कर सिर्फ  हत्या ही बन पड़ा उनसे ! कब तक करोगे बंद आवाज़  कब तक करोगे हातपाई  कब तक करोगे गुंडागर्दी  आखिर कब तक ये सहेंगे भी  एक से बढ़कर एक आवाज़  पैदा होगी जनतंत्र में कई यहाँ ! हर दबायी आवाज़ को बुलंद कर  जहाँ आवाज़ को खामोश किया  वहां कलम से तू काम कर, प्रहार कर   निडर निर्मोही कर निर्लज अन्याय का  प्रजातंत्र को न मायूस कर यूँ हैवान   एक आवाज़ को दबाने वाले प्राणी ! सौ खड़े हो जायेंगे बनकर वही आवाज़  तर्कसंगत से बनेगा एक स्वच्छ समाज  अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता हक़ है हर एक का !!       ~ फ़िज़ा 

प्रेम-सागर का मंथन पाया !!!

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दिल को वीरान रखा  शरीफों सा रहना सीखा  जैसा ज़माना कहता है  वैसा रेहन -सेहन रखा ! सोचा कोई रखे न रखे   ज़िन्दगी को दाव पे रखें  सेवा में जीवन को परखें   औरों की ख़ुशी में सुख देखें !! निष्कलंक मन से की सेवा  सुख के रूप में पाया मेवा  वीरान दिल में था बस लावा  प्रेम-सागर का मंथन पाया !!!  ~ फ़िज़ा 

कैसी अदभुद है ये मिलन ..!

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मेरे मिलन की रैना सजाने  ख़याल लेके आया दिन में  कैसी अदभुद है ये मिलन  जहाँ में मचा रखा कौतूहल  हर उस शर्मीली अदा को  समाबद्ध करते चले गए   हर किसी की नज़र में  प्यार नज़रबंद हुआ एल्बम में   रह गया समय का ये खेल   इतिहास के पन्नों पर जैसे  हमेशा के लिए इस मिलन को   दे दिया एक नाम सूरज और चाँद  के ग्रहण की गाथा जैसे अमर-प्रेम! ~ फ़िज़ा 

रंगों से परहेज़ न करो...!

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कोरे कागज़ को देख  मन मचल उठा यूँही कुछ रंगो की स्याही  छिड़क दिया उनपर  लगे अक्षर जुड़ने  बनकर एक कविता  करने लगे इशारे  झूमने लगे इरादे   बरसने लगी वर्षा  यूँही कुछ मोर  झूमने लगे नाचने  कुछ देर ही में जैसे  रास-लीला होने लगे  झूमती बहारों को देख  सोचने 'फ़िज़ा' लगी  कितने सूने से थे ये  जब कागज़ था कोरा  रंगों से परहेज़ न करो  इनके बिना जग सुना  लगे ! ~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी से क्या चाहिए ...

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ज़िन्दगी के धक्कों में  कहीं जवानी और ज़िन्दगी  दोनों खो गयीं उम्र के दायरे में  रहगुज़र करते-करते  ज़िन्दगी से क्या चाहिए  ये भी न जान पाए  वक़्त कठोरता से  बिना रुके चलते रहा  देख के, के कब समझोगे  और हम वहीं सोचते रहे  यादों के काफिलों को  गुज़रते हुए देखते रहे  जब काफिले थम गए  तो याद आया चलो  अपने लिए न सही  किसी और के लिए  जियें! ~ फ़िज़ा 

बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज

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बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज  बहारों का मौसम है यार कहाँ है आज  छुपकर खेलने वाले अब तो न सता यूँ  दिन ढले आ ही जाते हैं पंछी घोसलों में  इंतज़ार की घड़ियाँ यूँही न बढ़ाओ सनम  शाम के बाद रात भी बहुत देर कहाँ होगी  वक़्त को रोक लें चलो आ भी जाओ यहीं  फिर तुम वर्धमान हों या पूरे चाँद के रूप में  संभाल लेंगे वक़्त को तुम आओ तो सही  बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज  कहाँ है आज? ~ फ़िज़ा 

क्यों वो साथ फ़िज़ा का नहीं ?

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पूछती है मेरे अंदर की सहेली मुझसे  कब तक औरों की ख़ुशी के लिए जिए  जब औरों को भी ऐसा नहीं लगता हो  तो क्यों न अपने मन की ख़ुशी जियें ? दिल कहता है कहीं दूर निकल जाएं छोड़-छाड़ नगरी और यहाँ के लोग  बसर कर अजनबियों के संग ज़िन्दगी  क्या रोक रहा है जो न खुश है कहीं? रोटी-पानी को बिलखता देख आँसू  हर तरफ की मारा-मारी देख उदास  दिल से यही आवाज़ कुछ मैं भी करूँ किसका लहू है रोके मरते को देख? हर तरफ है आशा-निराशा कहीं तो  एक सहारा तो चाहिए जो है उम्मीद  देने वाला चाहे कोई भी क्यों न हो  क्यों वो साथ फ़िज़ा का नहीं ? ~ फ़िज़ा 

फिरती हूँ आजकल बेहकी-बेहकी

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फिरती हूँ आजकल बेहकी-बेहकी   गुमराह रास्तों पर अजनबी-अजनबी  मुस्कुराते चेहरे अनजानी अजनबी सी  क्या पता है क्या ठिकाना इस गली का  पगडंडी से गुज़रती हुयी कतारों सी   जहाँ कई पदचिन्ह पीछा करती हुयी   किसे जाना है और कितनी जल्दी  रास्ते हैं खुली बाँहों की तरह बुलाती  कई मुसाफिर हैं तरंगों को रोकती  कभी इठलाती तो कभी बहलाती  मंज़िल तू है भी कहीं या यूँ ही बहकाती  मुसाफिर हूँ मंज़िल की तलाश में  फिरती हूँ आजकल बेहकी -बेहकी ! ~ फ़िज़ा 

ऊपर है बादल,उसके ऊपर आसमान

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ऊपर है बादल,उसके ऊपर आसमान  यही है हमारे जीवन का निर्वाण   बादलों में भी हैं लकीरें खींचीं  जैसे अपने ही हाथों से है सींची   लकीरों के बीच झाँकती ज़िन्दगी  मानो देती हों अंदेशा भविष्य की कभी धुप की रौशनी में खो जाना  तो कभी साये में रौशनी को ढूँढ़ना  ज़िन्दगी की भी है अजब कहानी  ये हमारे-तुम्हारे सहारे से बनती  ज़िन्दगी के मज़े यही हैं चखती  क्यों न बादलों के संग खो जाएं  आये बरखा तब हम भी बरस जाएं ~ फ़िज़ा 

अभी मैं कच्ची हूँ ...

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नीम की निबोरी ने कहा  अभी मैं कच्ची हूँ  खुशबु में सच्ची हूँ  थोड़ा दिन और दो मुझे  पक्की हो जाऊँगी   मीठी बन जाऊँगी  तब खा भी लोगे मुझे  तो नहीं पछताऊंगी  जाते-जाते कुछ  गुण दे जाऊँगी  अभी मैं कच्ची हूँ  खुशबु में सच्ची हूँ ! कड़वी मैं लगती हूँ  सुन्दर भी लगती हूँ  हरियाली है रंग मेरा  गुणवान है अंग मेरा  सभी को न भाऊँ मैं जानते हैं सब लाभ मेरा  रखें सब पास मुझे  या रहते हैं पास मेरे  अभी मैं कच्ची हूँ  खुशबु में सच्ची हूँ ! अभी मैं कच्ची हूँ  खुशबु में सच्ची हूँ ! ~ फ़िज़ा 

एक घबराहट

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एक घबराहट  कुछ अजीब सा  जैसे पेट में दर्द  जाने क्या हो  कोई अंदेशा नहीं  धड़कन की गति  बेचैन करती  क्यों अंत यहीं हो  मेरा के मुझे  मालूम ही न हो  के किस बात की  थी ये घबराहट !!! ~ फ़िज़ा 

खुली हवा में खिली हूँ इस तरह...

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जी रही हूँ मैं खुली हवा में  ले रही हूँ सांसें खिली वादियों में  महकते हैं फूल है कुछ बदला  बहारों का मौसम फिर आगया है  खुली हवा में खिली हूँ इस तरह  मोहब्बत की खुशबु महकती है ज़रा  जी रही हूँ मैं खुली हवा में  क्यूंकि, ले रही हूँ सांसें खिली वादियों में  फ़िज़ा, महकती है कुछ  अब   चहकती है   फिर कोई अरमान मचलते फूलों में  चाँद के आगोश में यूँ बहकते अरमान ! ~ फ़िज़ा 

बहारों ने खिलना सीखा दिया मुझे ...!

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बहारों ने खिलना सीखा दिया मुझे  किसी खूंटी से बंधना न गवारा मुझे ! हौसला है अब भी न भय है मुझे  कोई साथ हो न हो ग़म न है मुझे ! दिन याद आते हैं पुराने मुझे  अकेले थे और लोग डराते मुझे ! बेफिक्र के दिन थे परेशानी थी मुझे  अपनों की याद सताती रही मुझे ! हर दिन नया हौसला है मुझे  जीने की देती यही सदायें मुझे ! खिलती कली ने कहा है मुझे  खिलना है काम बस आता मुझे ! पत्तों ने हँसकर कहा फिर मुझे  गिरते हम भी हैं पतझड़ में समझे ! खिलते फूलों ने कहा ये मुझे  खिलती रहो हमेशा ख़ुशी से मुझे ! ~ फ़िज़ा 

कहाँ जाते हो रुक जाओ !

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कहाँ जाते हो रुक जाओ  तूफानी रात थम जाने दो मौसम का क्या है बस बहाना  आने-जाने में यूँ वक़्त न गंवाओ  कहाँ जाते हो रुक जाओ ! बहलता है मन तो बहलने दो  रुका पानी उसे थमने न दो  ये जीवन है चलने वास्ते  स्वस्थ हवा में लहराने दो   कहाँ जाते हो रुक जाओ ! खुलके मिलो बाहर निकलो  ये समां यूँ ही न जाने दो  देखो चाँद वोही है आज भी  प्यार से उसकी तरफ देखो  कहाँ जाते हो रुक जाओ ! बुलाता है मुझे चाँद देखो  अपनी शुष्क बाँहों में खो  बिखेरता है रोमांच देखो  फिर जीने की राह देखो  कहाँ जाते हो रुक जाओ ! ~ फ़िज़ा  

मुझे पढ़ने वाले कभी सामने तो आओ...!

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मुझे पढ़ने वाले कभी सामने तो आओ  आइना हूँ दिल का पढ़लो कभी ये चेहरा कब तक रहोगे पढ़ते मेरा छिपकर कलाम   दे दिया करो दाद एक टिपण्णी का सहारा   जान तो लूँ मैं भी है दिल में वो  आग  अब भी  ज़िन्दगी जहाँ भी ले जाए इस दिल में है सदा  मोहब्बत की नहीं नुमाइश ख़ुशी के हैं एहसास  मुझे पढ़ने वाले कभी सामने तो आओ  कभी सामने तो आओ ! ~ फ़िज़ा 

कुछ लोग मोहब्बत करके... :)

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कुछ लोग मोहब्बत करके  समझते हैं किया एहसान  अपने अंदर झांकते कम हैं  चाहते हैं दूसरा रहे मेहरबान ! कुछ लोग मोहब्बत करके  हो जाते हैं शायद  बर्बाद  मोहब्बत के बदले मोहब्बत  सिर्फ अपने मतलब की बात ! कुछ लोग मोहब्बत करके  बन जाते हैं सबसे महान  फिर करते रहते हैं दिखावा  बनकर देवदास का गुनगान ! कुछ लोग मोहब्बत करके  सच में हो जाते हैं आबाद  नहीं गिला रेहता कोई शिकवा  जब चाहा नहीं कोई सवाब ! कुछ लोग मोहब्बत करके  मनाते शोक जीवनभर का   नाउम्मीद, बर्बादी का जश्न  परोसते गली ठेलेवाले जैसा ! कुछ लोग मोहब्बत करके  खुश हो जाते हैं संसार  आज मिले हैं तुमको  कब ज़िन्दगी करदे इंकार ! ~ फ़िज़ा 

क्यों न जाएं हस्ते-हस्ते उस पार हम भी?

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उसने कई बार अपनाया और ठुकराया भी  दौर में कई बार कोई जिया और मरा भी ! ज़िन्दगी  के मायने कोई समझा या नहीं भी  तोहमतें रोज़ नयी और होते रहे शिकार भी ! ऊंगलियां उठाने के मौके छोड़ता नहीं भी  समाज की बातें करते समतावादी की भी ! हादसे हो जाते हैं, बर्बाद नज़र आता भी  जड़ों की तलाश न करते ठहराते दोषी भी ! उसने कई बार अपनाया और ठुकराया भी  इस वजह से खुद को पायी और खोयी भी ! बहुत दूर तक सफर था साथ न होकर भी  सोचो कौन देता है आखिर तक साथ भी ? जब आये थे रो कर इस जहाँ में हम सभी  क्यों न जाएं हस्ते-हस्ते उस पार  हम भी? ~ फ़िज़ा

जीने की राह है आज़ादी जब ...

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आया तो हर कोई यहाँ बेमर्जी  जैसे सिर्फ काटने कोई सजा  क्यूंकि जाने कितने बेगैरत यहाँ  मिल जाते हैं देने सिर्फ सजा ! औरों को सजा देना, हैं इनकी जीत  औरों की गनीमत है जो सहते हैं  वर्ना कौन यहाँ निभाने वास्ते है  जब आये बेमर्जी तो क्यों सहें  बेवजह रिश्तों के नाम की बलि  चढ़ते -चढ़ाते निकल ही जाना है  काहे नहीं निकल पड़ते आवारा  जीने की राह है आज़ादी जब  तो ज़िंदादिली से जियें और  जो रेहा जाएं रोते -संभलते हौसला देके निकल जाएं !! ~ फ़िज़ा 

तब आयी एक नन्ही कली...

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जहां में थी जब मैं अकेली  तब आयी एक नन्ही कली  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! बस यकीन था खुद पर  चलना,सफर गर ज़िन्दगी  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! तो साथ में हो मेरी सखी  छोटी थी मेरी राजदार मगर  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! हर सुख-दुःख में निभानेवाली  मेरी नन्ही कली, चंचल मतवाली  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! कभी हम ज़िंदादिली सीखाएं  तो कभी वो हमें सीखाएं  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! है तो मेरी ही विस्तार  मगर मैं मुड़कर देखूं पीछे  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! अपनी उम्र न कभी गिनी मैंने  कब हो गयी ये फूल मेरी कली  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! फिर सोचूं क्यों मैं गिनूँ साल  अब तो है मेरी बराबर की सखी  सोचा न था, मैं हैरान हूँ पगली ! ~ फ़िज़ा 

जीवन का नाम है सिर्फ चलना !

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उसके अपने आज़ाद ख्याल थे  फिर भी वो सिमटी हुई दुनिया के  उसूलों पे रहने लगी थी मगर फिर भी  जीने की चाह उसके अंदर दबी थी ! क्या उड़ना इतना मुश्किल है? या ऐसा सोचना भी पाप है?  और ऐसा सोचना कौन तै करता है? क्यों कोई आज़ाद नहीं इस संसार में? जब वो आया नहीं किसी दायरे में? मैं हूँ एक ज़िन्दगी, जीना चाहती हूँ  अपनी मर्ज़ी की ज़िन्दगी ! क्यों कोई रोके या टोके मुझे ? कोशिशें लाख करूँ मैं फिर भी  गर कोई बर्बादी की तरफ ही बढे  तब छोड़ भी देना चाहिए ये ज़िद  रहने दो बिन क्यारियों के सबको  के ज़िन्दगी का नाम है आज़ादी ! ज़िन्दगी है जिंदादिलों की! जियो गर कोई साथ दे या न दे  ज़िन्दगी, तू जीने के लिए ही है आयी  तो जियो ख़ुशी से ! तबाह कर हर उस वहम को उस  रिवाजों को और हर दया को  जो रोके हैं तुझे किसी बांध की तरह  क्योंकि तेरा काम है बेहना और  जीवन का नाम है सिर्फ चलना ! चलते जाना! न रुकने का नाम है  ज़िन्दगी!!!! ~ फ़िज़ा 

हम दोनों हैं इंसान!

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हर बात पे पूछते हो के तू क्या है ? क्यों हर बार मेरी औकात पूछते हो ? जैसा भी हूँ, ऐसा ही हूँ आपके सामने  गर कुछ काम-ज्यादा हो तो संभालो  आखिर मैं भी एक इंसान हूँ ! ज़िन्दगी के मायने किसने लिखवाये ? जो हर कोई मिसाल जीने के देता रहे? इंसान हूँ मैं अच्छा थोड़ा बुरा भी मगर  जीने के कठीन राहों पर भटकता हुआ  ग़लती कर बैठूं तो क्या, इंसान हूँ ! कुछ लोग क्यों औरों पे इल्ज़ाम दें? क्यों स्वार्थी होकर भी न्याय मांगे? अपने दम पर खुशियां देते हो मगर  जताते हो दुनिया का जुल्म सहते हो  समझता हूँ यही कहोगे के इंसान हूँ ! जब सारा फसाद इंसानो का है तब? क्यों नहीं आपस में मिल जाएं हम? एक-दूसरे की खामियों को अपनाकर  उसमें अपनी-अपनी खूबियां भर दें तो  आख़िरकार सच तो यही है न - हम दोनों हैं इंसान! ~ फ़िज़ा 

स्त्री को आम इंसानों जैसा जीने देना !

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स्त्री सिर्फ देने का नाम नहीं  कर्म से और कर्तव्य से कम नहीं  हाव-भाव में बेशक तुम सी नहीं फिर भी हर काम में किसी से कम नहीं ! बेटी का रूप लेकर कोई ग़म नहीं  बेटी, बेहन बन फुली न समायी नहीं  दुल्हन बन वो बाबुल को भुलाई नहीं  ससुराल की बनकर रहने में शरमाई नहीं ! प्यार का भण्डार है वो कतराई नहीं  सहारा देना पड़ा देने से घबराई नहीं  मुसीबतों से लड़ने से कभी हारी नहीं  हर काम करने से वो हिचकिचाई नहीं ! बेटी, बेहन, बीवी, बहु, माँ होने से डरी नहीं  काली का रूप लेकर सीख देने से हटी नहीं  स्त्री हर मुसीबत को सहने से झिझकती नहीं  फिर स्त्री को पुरुष जैसी आज़ादी क्यों नहीं ? कुछ लोग उसे खूसबसूरत कहते हैं  कुछ लोग उसे चुड़ैल भी कहते हैं  हर तरह के नाम देकर भी उसे पूजते हैं  स्त्री को भी इंसान क्यों समझते नहीं ? आखिर क्यों समझे इंसान स्त्री को  जब वो सबसे अलग होकर भी अबला है  सीता से लेकर दुर्गा की छवि रखती है  हाँ ! हो सके तो स्त्री को आत्मनिर्भर रखना ! उसे अपने हक़ ...