Saturday, August 19, 2017

रंगों से परहेज़ न करो...!

कोरे कागज़ को देख 
मन मचल उठा यूँही
कुछ रंगो की स्याही 
छिड़क दिया उनपर 
लगे अक्षर जुड़ने 
बनकर एक कविता 
करने लगे इशारे 
झूमने लगे इरादे  
बरसने लगी वर्षा 
यूँही कुछ मोर 
झूमने लगे नाचने 
कुछ देर ही में जैसे 
रास-लीला होने लगे 
झूमती बहारों को देख 
सोचने 'फ़िज़ा' लगी 
कितने सूने से थे ये 
जब कागज़ था कोरा 
रंगों से परहेज़ न करो 
इनके बिना जग सुना 
लगे !

~ फ़िज़ा 

No comments:

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...