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Showing posts from 2015

ज़िन्दगी जीने का नाम है ...!

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ज़िन्दगी में गर अकेले हो  तो साथ किसी को ले लो  फिर उन्हें साथ रखना न भूलो ! मोहब्बत का दावा करो ज़रूर  फिर मतलबी न बनो  मोहब्बत दावे पर नहीं टिकती ! नज़र रखते हो सब पर गुपचुप   दिखावा एक से प्यार का  हर हसीना को सन्देश भेजा न करो! तालियां बजती हैं दो हाथों से  ये न सोचो की कोई हमेशा मड़रायेगा  हमेशा अपना हाथ बढ़ाये रखो ! ज़िन्दगी जीने का नाम है  न जियो तब भी चलती है  किसी और का जीवन न जियो ! ~ फ़िज़ा 

क्या ग़म है मोहब्बत में जीना?

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जब भी कभी मोहब्बत की आग जली  हर किसी ने उसे बुझाने की सोची   चाहे वो एक धर्म जाती के हों   या अलग-अलग धर्म प्रांतों के   समाज हमेशा पेहरे देने पर चली  रोकना, दखल देने में रही उलझी   कभी किसी ने भी अपने मन कि की  तब हर बार समाज की उठी उंगली  जाने क्या गलत है मोहब्बत में   हर कोई मारा गया मोहब्बत में  हीर-राँझा या रोमियो जूलिएट  बलिदान की सूली पर आखिर गुज़री  मरना तो हर किसी को है फिर  क्या ग़म है मोहब्बत में जीना?   ~ फ़िज़ा 

दरअसल राहें बदल गयीं इस करके भी....

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चंद राहें संग चले फिर बिछड़ गए  दरअसल राहें  बदल गयीं इस करके भी  चलने वाले संग होकर भी अलग हो गए ! दोस्ती बराबर की थी सही भी शायद  कुछ था जो दूरियों को बीच ले आई  न जाने मचलता गया फिर दिल शायद ! ग़लतियां समझो या हकीकत का आना  निभाना है संग कसम निभाने की खायी  खाने की होती है कसम जो पड़े निभाना ! सोचो तो बहुत कुछ और कुछ भी नहीं  और देखो तो बहुत कुछ है जहाँ में  कलेजों को रखना है साथ निभाना नहीं !  ये दुनिया है सरायघर आना जाना है  कहीं रूह से जुड़े तो कहीं खून से  क्यों लगाव रखना जब आकर जाना है ! ~ फ़िज़ा 

सुलगती हुई ज़िन्दगी को दो उँगलियों के सहारे ...!!!

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मैं सुलगाता हूँ  वो सुलगती है  मैं सुलगता हूँ  वो सहलाती है  मैं बहलता हूँ  वो जलती है  मैं जलता हूँ  मैं जलता हूँ ? तो कैसे बहलता हूँ? क्यों जलता हूँ ?  जलूँगा तो मरूंगा  साथ लोगों को ले डूबूँगा  इंसान हूँ तो ऐसा क्यों हूँ? दुखी हूँ इसीलिए? ये तो कोई उपाय नहीं ये तो सहारा भी नहीं  मेरी कमज़ोरी का निशाँ  ये सुलगती हुई ज़िन्दगी  मेरे ही हाथों जलती  मुझ ही को बुझाती  क्या मैं कायर हूँ?  सुलगती हुई ज़िन्दगी को  दो उँगलियों के सहारे  ये तो कोई तिरन्ताज़ नहीं  कमज़ोरी के निशाँ कहाँ तक  और कब तक लेके घूमूं  साहस है मुझ में भी  निडर होकर झेलूंगा सब  साथ जब हैं साथीदारी  नहीं चाहिए सुलगती साथ  जो जलकर बुझ जाती है  फिर जलाओ तब भी  बुझ ही जाती है...  ऐसे ही मुझे भी शायद....  ~ फ़िज़ा 

चला जा रहा था ...

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चला जा रहा था  लाश को उठाये वो  न जाने कहाँ किस  डगर की ऒर  मगर था भटकता  न मंजिल का पता  दूर-दूर तक  न जानते हुए  किधर की ऒर  दिन हो या रात  धुप हो या छाँव  चला जा रहा था  तभी एक छोर  किसी ने  रोक के पुछा - कहाँ जा रहे हो भई !  यूँ लाश को उठाये ? चौंकते हुए  मुसाफिर ने  देखा अजनबी को  तो कभी खुद को  सोचने लगा  कहाँ जा रहा हूँ मैं ? लाश को ढाये ? सोच में ही  गुज़र गया  और वो चलता रहा  लाश को उठाये हुए !!! ~ फ़िज़ा 

इस ज़िन्दगी का क्या?

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जीने का जब मकसद ख़त्म हो जाये  तब उसे जीना नहीं लाश कहते हैं  लाश को कोई कब तक ढोता है? बदबू उसमें से भी आने लगती है...  क्यों न सब मिलकर खत्म कर दें  इस ज़िन्दगी को ? मरना आसान होता मदत नहीं मांगते  कोशिश भी करें? तो कहीं बच गए तो ? खैर, किसी को खुद का क़त्ल करवाने बुलालें  काम का काम और खुनी रहे बेनाम  मुक्ति दोनों को मिल जाये फिर  इस ज़िन्दगी का क्या? मौत के बाद की दुनिया घूम आएंगे  कुछ वहां की हकीकत को भी जानेंगे  समझेंगे मौत का जीवन जीवन है या  ज़िन्दगी ही केवल जीवन देती है? जो भी हो एहसास तो हो पाये किसी तरह  ज़िन्दगी तो अब रही नहीं मौत ही सही  इस ज़िन्दगी में रखा क्या है? ~ फ़िज़ा 

एक उड़ान सा भरा लम्हा जैसे ...!

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मोहब्बत भी एक लत है  जो लग जाती है तो फिर  मुश्किल से हल होती है  एक घबराहट तब भी होती है  जब ये नयी -नयी होती है  और तब भी जब बिछड़ जाती है  एक डर जाने क्या अंजाम हो आगे  या फिर एक अनिश्चितता  एक उड़ान सा भरा लम्हा जैसे  रोलर कोस्टर सा जहाँ डर भी है  और एक अनजानेपन का मज़ा भी बहलते-डोलते चले हैं रहगुज़र  जब-जब होना है तब होगा  अंजाम होने पर देखा जायेगा  मोहब्बत भी क्या चीज़ है दोस्तों! ~ फ़िज़ा 

स्वर्ग है या नरक ...!!!

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स्वर्ग हो या नरक  दोनों ही एक रास्ते  के दो छोर हैं  कभी नहीं मिलते मगर  साथ भी नहीं छोड़ते  रास्ता जो है ज़िन्दगी  बस, चलती रहती है ! कहते हैं अभी जहन्नुम  और जन्नत यहाँ कहाँ है  वो तो मौत के बाद हासिल है  किसने कहा की मौत आसान है  मौत के लिए भी करम करने होते हैं  इस करके भी स्वर्ग और नरक  दोनों इसी जहाँ मैं हैं ! जीना है तो दोनों के साथ  वर्ना मौत तो एक बहाना है  एक नए दौर पर निकलने का  नयी राह थामने का  एक नए सिरे से ढूंढने का  स्वर्ग है या नरक  दोनों यहीं हैं भुगतना ! ~ फ़िज़ा 

दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।

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घर महलों सा सजाने से  कभी भी घर नहीं बनता  दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।  आईना नया क्यों न हो चेहरा वही नज़र आता   दिल में नफ़रतें पालो मुस्कराहट सच्चा नहीं लगता ।  धन बटोर लो जहाँ में मन संतुष्ट नहीं हो पाता  घर हो बड़ा एक कबर की जगह नहीं दे सकता ! सँवरने का मौसम हैं ख़ुशी पास से भी न गुज़रता  कीमती हो लिबास कफ़न का काम नहीं करता !  दिखावे की ज़िन्दगी, दोस्त हक़ीक़त शाम को है मिलता  कभी मौत दस्तख दे तो मिट्टी के लिए इंसान नहीं मिलता । 'फ़िज़ा' सोचती है ये पल अभी है कल कहाँ होता ? जो है वो आज है अब है सब कुछ यही रेह जाता ।   ~ फ़िज़ा'

इंसान होना भी क्या लाचारी है!

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दिल कराहता है  पूछता है मैं क्या हूँ?  क्यों हूँ?  किस वजह से अब भी ज़िंदा हूँ? वो सब जो मायने रखता है  वो सब जो महसूस के बाहर है  वो सब आज यूँ आस-पास है  और मैं ये सब देखकर भी  ज़िंदा हूँ क्यों हूँ?  लोग मरते हैं आये दिन  बीमार कम  और वहशत ज्यादा  प्यार कम और नफरत ज्यादा  अमृत कम और लहू ज्यादा  ये कैसी जगह है? ये क्या युग है जहाँ  लहू और लाशों के  बाग़ बिछाये हैं  लोग कुछ न कर सिर्फ  दुआ मांग रहे हैं  इंसान होना भी क्या लाचारी है! हैवान पल रहे हैं, राज कर रहे हैं  मैं क्यों अब भी ज़िंदा हूँ? क्यों आखिर मैं ज़िंदा हूँ? ~ फ़िज़ा 

पतझड़ में गिरा पत्ता...!

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पतझड़ में गिरा पत्ता  वो भी गीला  हर हाल से भी   रहा वो  नकारा  न रहा वृक्ष का  न ही किसी काम का  बस जाना है धूल में  धरती की गोद में  जी के न काम आये  तो क्या मरके खाद बन जायेंगे ! ~ फ़िज़ा 

फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

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जो कल तक था वो आज नहीं है  जो आज है वो कल तक नहीं था  कल जो होगा वो आज तो नहीं है  फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? इंसान चाहता कुछ है उसे मिलता कुछ है  उसे जो चाहिए वो मिल भी जाये तो क्या? वो ज़ाहिर उसे करता नहीं सो खुश हो सकता नहीं  फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? पैदा होते ही नियमों की वस्त्रों में उलझते हैं  बड़े हों या छोटे हर तरह के नियमों में बंधते हैं  गृहस्ता आश्रम में चलकर भी डरके रहते हैं  फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? जिसकी शिद्दत करता हैं वो दिल-ओ-जान से  जिसके बिना जीना है उसका दुश्वार  उसी को करता याद दिन-रात मगर  नहीं दिल खोलकर जी सकता है न मरना  फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? जो दीखता है वो होता नहीं  जो होता है वो दीखता नहीं  फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ? ~ फ़िज़ा 

एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी...

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एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी  मज़बूरी कहिये या समाज की रीती  दोनों का ब्याह हुआ मिली दो कड़ी  चिड़ा था बावला चिड़ी थी नकचढ़ी  जितना चिड़ा पैर पकड़ता चिड़ी वहीँ पटकती गुज़रते गए लम्हे कुछ साल यूँ चुलबुलाती  एक वो भी पल आया जब चिड़ा ने ली अंगड़ाई  बहार को आते देख चिड़ा ने दी दुहाई  रंगों की बदलती शाम उसपर ढलती परछाई  चिड़ी थी अब भी अपनी अकड़ में समायी  न जानी कब चिड़ा ने फेर दी नज़र हरजाई  चिड़ा था मस्त सपनो में चिड़ी थी व्यस्त करने में लड़ाई   तरह-तरह के प्रयोग करने लगी चिड़ी जादुई  कहाँ चिड़ा आता वो तो जीने लगा ज़िन्दगी ललचाई  चिड़ी भूल गयी, इस बार गधी पर नहीं परी पर है दिल आई !!! ~ फ़िज़ा 

फिर उस मोड़ पर आगये हम ....!

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उसने उस दिन हाथ ही नहीं उठाया  मगर चीज़ें फ़ेंक भी दिया था ! सिर्फ चहरे की जगह ज़मीन आगयी  फिर उस मोड़ पर आगये हम  अकेले आये थे अकेले जायेंगे हम  चाहे धर्म से आये या नास्तिक बनके  जाना तो सभी को एक ही है रस्ते  क्या तेरा है क्या मेरा है  जो आज है बंधन वो कहाँ कल है  जो कल था वो आज हो कहाँ ज़रूरी है  ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वह रात  एक अनजान रात में हसीं हादसे के साथ ! ~ फ़िज़ा  

कहाँ आगया, हाय इंसान!!!.....

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नन्हा सा ही था मगर  उसके भी थे हौसले निडर  चाहता भी वो यही था  जी लूँ किसी कदर  बच सकूँ तो ज़िन्दगी  नहीं तो मौत ही सही ! कितना सहारा हमने दिया? कितनी मदत हमने दी ? कुछ न कर सके तो क्या? जीने का तो हक़ ही था  काहे ऐसी नौबत लायी  सहारे की आड़ में डूब गया  जीने की एक चाह ने  कहाँ से कहाँ इंसान को पहुंचा दिया ? क्या था उसका कसूर? इंसान होने की ये सजा? क्यों नहीं वो पंछी बना  उड़ जाता जहाँ दिल कहे  जी लेता वो भी चंद साँसे  क्या मिला इंसान बनके? क्या किया इंसान ने ? जहाँ एक -दूसरे के दुश्मन बने  कहाँ आगया, हाय इंसान!!! लानत है! ~ फ़िज़ा 

गुज़रते वक़्त के पन्नों को उलटकर देखा...

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गुज़रते वक़्त के पन्नों को उलटकर देखा  कहाँ थे, कहाँ को आगये मेरे हमराज़  चेहलती मस्ती भरी दोस्ती फिर वो पल  जहाँ न कोई बंदिश न कोई साजिश  हँसते -खेलते गुज़रते वो पल जो नहीं है  और आज का ये पन्ना जो लिख रहे हैं  हंसी तो है कुछ कम जिम्मेदारी ज्यादा  लोग हैं बहुत दोस्त बहुत कम वक़्त ज्यादा  भरी मेहफिल न अपना सब बेगाना ज़माना  मिलो हंसके बनो सबके बोलो कसके  दिखावे की ज़िन्दगी खोकली आत्माएं  भरी जेबें खोखले दिल भूखी आँखें  जो सिर्फ देखतीं तन ललचाती आँखों से  तो वहां भूखे पेट नंगे जिस्म जीने को तरसे  पन्नें उलटते यहाँ तक पहुंची बस फिर  गुज़रे पन्नों पर ही नज़र गड़ी रही अब तक  के मैं जो लिख आयी वो कहाँ हैं और ये अब? ~ फ़िज़ा 

इजहार-ए -मुहब्बत यूँ भी करना ...!

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मेरा दिल दर्द से तू भर दे इतना  के जी न सकूँ चेन से न मरना  लफ़्ज़ों के खंजर से खलिश इतना  के जी न सकूँ चेन से न मरना  इजहार-ए -मुहब्बत यूँ भी करना  के जी न सकूँ चेन से न मरना  दुआएं यूँ देना के बरसों है जीना  मगर ऐसा भी, के जी न सकूँ चेन से न मरना  ~ फ़िज़ा 

बहुत सालों बाद बचपन लौट आया था

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बहुत सालों बाद बचपन लौट आया था  किसी से इतने पास होने का एहसास अब हुआ था  जाने कैसे बिताये इतने साल ये अंजाना था  कुछ देर के लिए मानो भूल गया वक़्त हमारा था  लगा हम लौट आये स्कूल की कक्षा में फिर  उसी बेंच पर बैठकर बातें कर रहे थे कुछ देर  भेद-भाव न था आज फिर भी मिलन पुराना था  मानो जैसे पानी और दूध का मिलन था  मिलने की देरी थी फिर जुदा न हो पाना था  लौट आये हैं अपने घरोंदों में अब लेकिन  एक बड़ा हिस्सा छोड़ आये उन्हीं गलियों में  जहाँ हम सब पले -बढे और खेले थे !!! ~ फ़िज़ा 

भटकते हैं ख़याल 'फ़िज़ा' कभी यहाँ तो कभी वहां हसास ....

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वो दिल मैं ऐसे बैठें है मानो ये जागीर उनकी है  वो ये कब जानेंगे ये जागीर उनके इंतज़ार में है ! ये बात और है के हम जैसा उनसे चाहा न जायेगा  कौन कहता है के चाहना भी कोई उनसे सीखेगा ? वो पास आते भी हैं तो कतराते-एहसान जताते हुए  क्या कहें कितने एहसान होते रहे आये दिन हमारे ! रुके हैं कदम अब भी आस में के वो मुड़कर बुलाएँगे आएं तो सही के तब, जब वो मुड़ेंगे और निगाहें मिलेंगे ! भटकते हैं ख़याल 'फ़िज़ा' कभी यहाँ तो कभी वहां हसास  क्या सही है और कितना सही है ये मलाल न रहा जाये दिल में !! ~ फ़िज़ा 

विस्मरणिया है संगम ऐसा ...

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शुष्क मखमल सी बूँदें  मानो ओस की मोती  लड़ियाँ बनाके बैठीं हैं  एक माला में पिरोये हुए  सुन्दर प्रकृति की शोभा में  बढ़ाएं चार चाँद श्रृंगार में  मचल गया मेरा दिल यहीं  लगा सिमटने उस से यूँ  जैसे काम-वासना में लुत्प  विस्मरणिया है संगम ऐसा  हुआ मैं तृप्त कामोन्माद  मंद मुस्कान छंद गाने मल्हार  प्रकृति का मैं बांवरा हुआ रे  श्रृंगार रस में डूबा दिया मुझे  ~ फ़िज़ा 

'फ़िज़ा' ये सोचती रही कितना चाहिए जीने के वास्ते?

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कुछ लोग जीते ही औरों के कबर के वास्ते  चाहे किसीका कुछ भी हो मरते हैं घर के वास्ते  कहते हैं ज़िन्दगी बहुत मुश्किल है जीने वास्ते  ज़िन्दगी आसान है बनाते मुश्किल किस  वास्ते? दूर-दूर तक न साथ फिर भी रहते एक छत वास्ते  क्यों दुश्वार जीना जब साथ नहीं एक-दूसरे के वास्ते  चंद मगरमच्छ के आँसू हो गए मजबूर ज़िद के वास्ते  बंदा जिए या मरे मगर घर दिलादे फिर मर जाये रस्ते ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं रही अब जीने के वास्ते  'फ़िज़ा' ये सोचती रही कितना चाहिए जीने के वास्ते?   फ़िज़ा 

उसकी एक धुन पे चलने की सज़ा ये थी...

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उसने कहा मैं तुम्हें चाँद तक ले जाऊँगा  हो सके तो अगले जनम तक पीछा करूँगा  उसकी एक धुन पे चलने की सज़ा ये थी हर ताल पे ता-उम्र चलने की सज़ा मिली  साथ होने का असर यूँ तो देखिये हुज़ूर  हमेशा के लिए कैदी बना दिए गए  बंधी की हालत न पूछो यूँ हमसे  वो इसे मोहब्बत समझते रहे ऐसे  बीते जिस पर वही जाने हैं हाल  बांधकर भी कोई आज़ाद रहता है? फ़िज़ा 

कुछ लोग यूँ आजकल मिलते हैं ...

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कुछ लोग यूँ आजकल मिलते हैं  सिर्फ दिखाने के लिए जीते हैं  दिल की बात तो कुछ और है  मगर जताते तो कुछ और हैं  पहनावे का रंग अलग है  दिखाने के तेवर कुछ और हैं  जब हकीकत से हो जाये पहचान  देर न हो जाए कहीं मेरी जान ! कुछ लोग यूँ आजकल मिलते हैं  सिर्फ दिखाने के लिए जीते हैं !! फ़िज़ा 

न निकले बाहर न रहे भीतर सा

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कुछ बात है दिल में एक गुम्बद सा  न निकले बाहर न रहे  भीतर सा  सोचूं तो लगे कुछ भी नहीं परेशान सा  फिर भी गहरी सोच पर मजबूर ऐसा  कैसी असमंजस है ये विडम्बना सा  न निकले बाहर न रहे भीतर सा  खोने का न डर न कुछ पाने जैसा  सबकुछ लुटाने की हिम्मत भी दे ऐसा  कुछ बात है दिल में एक गुम्बद सा  न निकले बाहर न रहे  भीतर सा  ~ फ़िज़ा 

क्यों वक़्त ज़ाया करें ये एक जवाब बन जाता है !

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कोई दूर से ही सही सहलाता है मुझे सुनता है  पल भर के लिए ही सही मेरा अपना लगता है  पास रहकर भी न जो जाने वो ये एहसास है  क्यों वक़्त ज़ाया करें ये भी एक सवाल है ? पलछिन की ज़िन्दगी पलछिन का खेल सब है  सोचने में गुज़र जायेगा पल क्या खोया क्या पाया है  वक़्त कट जायेगा हल वही का वही होना है  क्यों वक़्त ज़ाया करें ये भी एक सवाल है ? बरसों किसी की गलतियों के निशान ये है  गुज़रे ज़माने की परछाइयाँ लेके साथ है  आज जो है वो कल न होगा ये हकीकत है  क्यों वक़्त ज़ाया करें ये भी एक सवाल है ? अपने वक़्त न लगते पराये हो जाना है  कोशिशें भी अक्सर असफल करती है  कल और आज का नज़ारा बदला सा है  क्यों वक़्त ज़ाया करें ये भी एक सवाल है ? यही एक सोच, सिर्फ एक सोच न है  लागू करने में वक़्त कहाँ लगता है  हर संयम का साथ खो देता है  तब सवाल जवाब बन जाता है  क्यों वक़्त ज़ाया करें ये एक जवाब बन जाता है ! ~ फ़िज़ा 

कहाँ हम पहुंचे हैं किस ऒर जा रहे हैं और किसके वास्ते !?!

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वो मकान बदलती रही घर बनाने के वास्ते खुद को न बदल सकी मकान को घर बनाने के वास्ते। वो इच्छा पूरी करती रही अपनी भावनाओ के वास्ते वो न समझी सकी साथी की भावनाओ को किसी वास्ते ! वो जीतना चाहती थी घरवालो से अपने वास्ते वो समझ न सकी उसकी हार उसी के वास्ते ! वो दिन भी आया चले  मकान से महल के रास्ते दो कमरों की दुरी से पांच की दुरी नापने के वास्ते ! सुना आज भूकंप आया नेपाल और भारत के रास्ते कई मौत के घाट उतरे क्या महल और मकान के वास्ते ! ज़िन्दगी की सीख प्रकृति दे गयी इंसानो को जीने के वास्ते कितना और क्या चाहिए जब पैर हो चादर के अंदर के वास्ते ! 'फ़िज़ा' सोचती रही जीवन की हक़ीक़त इच्छापूर्ति लोगों के वास्ते कहाँ हम पहुंचे हैं किस ऒर जा रहे हैं और किसके वास्ते !?! ~ फ़िज़ा

जाने क्यूं ?

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जाने क्यूं वो रोकता था , प्यार से मुझे घोलता था , मुझको भी सब मीठा लगता था , जाने क्यूं वो रोकता था ! तोहफे वो रोज़ लाता था , नज़र ना लगे इस वजह छुपाता था , गुड़िये जैसा सजाता भी था , जाने क्यूं वो रोकता था ! तब तडपकर वो टूट जाता था , एक दिन वो पल भी आया था , मुझे दूर लेजाकर छोड़ आया था , तभी मुझे बचाकर रखता था , जाने क्यूं वो रोकता था ,! शायद प्यार खुद से करता था , उसकी जान मुझ में बसा था , तब जाके समझा ... जाने क्यूं वो रोकता था !!!... ~ फ़िज़ा