दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।
घर महलों सा सजाने से कभी भी घर नहीं बनता
दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।
आईना नया क्यों न हो चेहरा वही नज़र आता
दिल में नफ़रतें पालो मुस्कराहट सच्चा नहीं लगता ।
धन बटोर लो जहाँ में मन संतुष्ट नहीं हो पाता
घर हो बड़ा एक कबर की जगह नहीं दे सकता !
सँवरने का मौसम हैं ख़ुशी पास से भी न गुज़रता
कीमती हो लिबास कफ़न का काम नहीं करता !
दिखावे की ज़िन्दगी, दोस्त हक़ीक़त शाम को है मिलता
कभी मौत दस्तख दे तो मिट्टी के लिए इंसान नहीं मिलता ।
'फ़िज़ा' सोचती है ये पल अभी है कल कहाँ होता ?
जो है वो आज है अब है सब कुछ यही रेह जाता ।
~ फ़िज़ा'
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