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Showing posts from February, 2006

सर्द हवाओं ने फिर छेडी है जैसे

कल सुबह से ही बरसात अपनी ज़िद पर था और कारे-कारे घटा मानों तय कर के आऐं हों.... कल की सुबह वाकई रंगीन थी..ये बात और है के....रंगत को अमावस्‍या की हवा लग गई...;)....अर्ज किया है... एक तूफानी रात...बिजली की कडकडाहट तो साँय-साँय करती हवा मानो जैसे कुछ ठानकर आई हो............ सर्द हवाओं ने फिर छेडी है जैसे वही दिल के अरमानों को किसी की याद सिने में... आज भी धडक रही है ऐसे रेह-रेह कर तुझे बुलाती है.... आ ! फिर एक बार मुझे अपना बनाने के लिये आ ऐसे उसके आते ही ऐसा लगा जैसे सर्द हवाओं का झोंका आया एक तूफानी रात से भरी घनघोर बारिश में जैसे भीगी हुई जुल्‍फों से टपकता पानी ये कह रही हों जैसे झुम के बरसों बस भीग जाने दो आज मुझे ऐसे जब ठंड से पलकें खुलीं तो देखा तूफान तो था बारिश अब भी जोरों से बरस रही थी और मैं......बस भीग रही थी.... हाँ!!! तूफानी बारिश में भीग रही थी ऐसे!!!! ~ फिज़ा

नई जगह है नये हैं लोग, नई है फिजा फिर भी...

आज कुछ इस तरह मेहसूस हो रहा है .....जैसे अपने घर को छोड दुर इस नई जगह पर आऐं हैं, जहाँ नये जगह पर आने की खुशी तो है ही...लेकिन कहीं उदासी भी है....पुरानी जगह से दूर रेहने की वजह से.... जिस तरह पौधा एक क्‍यारी से दुसरी क्‍यारी में अपना स्‍थान गृहण कर लेता है...ठीक उसी तरह हम भी खानाबदोश कि भाँति निकल पडे हैं....नये रंग और नयी दुनिया में....एक नई उमंग और नये हौसले के साथ..... माँ का ठंडा आँचल मुझको आज फिर याद आया इतने दिनों के बाद किसी ने खूब मुझे रुलाया है कल तक खुश-खुश काट रही थी जीवन अपना घर के खाली कमरे में आज यादों का दीया जलाया है बरसों बाद मिले हो तुम दिल की ऐसी हालत है माँ ने जैसे बच्‍चे को लोरी गाके सुलाया है तुझको पा के खुशियों के मैं दीप जलाया करती हुँ नये कल की कोशिश में अच्‍छा एहसास जगाया है नई जगह है नये हैं लोग, नई है 'फिजा' फिर भी अपनी धरती के जो रंग हैं उनको मन में बसाया है ~फिजा

हम कहाँ के हैं इंसान....?

आज दिल कुछ बोझल सा है ये दिल भी कितना नादान है....जाने कब की लिखी बातें होतीं हैं और इस पर असर कर जातीं हैं ऐसा ही कुछ दिल का हाल है....वाकई में हम कहाँ के इंसान हैं...जो कभी किसी के बारे में सोचते ही नहीं आज ऐसे ही कुछ बातों को लेकर...एक दिल झंझोडने वाली कविता पेश ए खिदमत है.... उमर ढलती जा रही है जिंदगी शरमा रही है इस मकान की चौखट से माँ ये गाना गा रही है सामने लेटा है बचचा और वो सुला रही है बरतनों में सिरफ पानी आग पर चढा रही है बासी रोटियों के टुकडे समझकर अमरित खा रही है सामने बडा सा घर है जिस से रोशनी आ रही है खूब हंगामा मचा है मौसगी बहार आ रही है साज् पे थरकते लोग मगरिब जिला पा रही है हम कहाँ के हैं इंसान समझ कयों नहीं आ रही है ? ~ फिजा

भीगा भीगा मौसम है....

आज सुबह जब मैं घर से निकली थी तब सुरज अपनी रोशनी पर था और हलकी सी शुशक सरदी भी थी....काम की वयसतता के कारणवश....पता ही नहीं चला के कब काले बादल छाये और बस देखते ही देखते मुसलदार बरखारानी बरस पडी बारिश का मौसम, और काले बादलों का छा जाना मेरे लिऐ कभी छुटिट्यों से बढकर नहीं लगे ये दिन वो पाठशाला के दिन याद आ जाते हैं.....बेहते पानी के नालों में खेलना....बहुत देर तक भिगना और फिर घर पहुँच कर तरह तरह के बहाने बनाना....माँ की डाँट सुनकर भी ... मेरी पसंदगी बरकरार रही भीगा-भीगा मौसम है भीगा- भीगा सा आँचल मन में एक उमंग है तो, कहीं कुछ उदासी सी भी .. ऐसे में कोई साथी हो तो, मौसम का कुछ और मजा है बहारों की ये मौसगी जो, इंतजार तेरा करवाती है कयों न कोई ऐसी बात हो, के दिदार-ए-यार आज हो जाऐ भीगे से इस मौसम में कयों न आज हम भी भीग जाऐं भीगे आँचल में ही सही, हम तुम एक हो जाऐं कहीं ~ फिजा

बाली उमर में हम को लगा है ये रोग

मौसगी का असर है या फिर दिल के उमंगों की अंगडाई....जो भी हो कुछ इस तरह से शायरी निकल आई.... बाली उमर में हम को लगा है ये रोग हम अपने घर की राह को ही भुलने लगे ऐसा चढा है ईशक, तेरी मुहबत का तुझ से ऐक नये रिशते को जोडने लगे हम तो तेरी ओर खिंचे चले आते हैं तुम रसमों की सदाऐं हमें देने लगे ये मुहबत का कसुर है या बाली उमर का हमेँ तुम ही कसुरवार ठेहराने लगे ये ईशक अब कहाँ रुक पायेगा 'फिजा' कयों तुम हम से दामन बचाने लगे ~फिजा

किसी सौदाई की चाहत में जिसे ठुकराया कभी...!!

(जैसा के मैंने पेहले भी कहा है इस तकनीकी की अधिक जानकारी नहीं होने की वजह से अलफाजों को पढने में दिककत हो सकती है, मैं इसके लिऐ माफी चाहुँगी ‌ ) बडे दिनों से मैं अपनी लिखी गजल...जो के गजल की परिभाषा से बिलकुल भी मेल नही खाते ... मेरा मानना है के शायरी को जिस मीटर याने बेहर में लिखना चाहिऐ....मैं उस मुकाम तक नहीं पहुँची हुँ!!!! किंतु जैसा कहा जाता है ...कोशिशें अकसर सफलता की ओर ले जाती हैं ‌ मेरी भी ऍक कोशिश....ऍक परयास...देखें मुझे किस तरह से मेरे साथी इसिलाह देते हैं.... अरज किया है .... उसी का जिकर किया करती थीं सरद हवा कभी जो मन मंदिर में मेरे रेहता था कभी ‌ यही रफीक था जो आज हम से शकी है बिना कहे दिलों की बात जानता था कभी ‌ जैसे परियों का फलक से हो उतरना धरती पे उस की बातें मेरे दिल में थीं पोशीदा कभी ‌ उस के हर लफज से आती थी वफा की खुशबु किसी सौदाई की चाहत में जिसे ठुकराया कभी ‌ अब ~फिजा~ हो जो पशेमान तो चारा कया है अपने हाथों से गँवाईं थीं कई खुशियाँ कभी ‌ ‌ ~फिजा

कौन हुँ मैं ?

कभी ऐसा हूआ है आपके साथ जब कोई...आपकी हुनर को, आपकी अदा और नेक नियती को पसंद करने लगता है तो वो आप से आपके धरम, भाषा और आढंबरी बातों के विषय में पुछने लगता है...? मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ...और मेरे मन में जो भी कशमकश थी उसे कुछ ऐसा रुप दिया....उममीद है बात की हकीकत को आप जानेंगे और उसकी विडंबना को मेहसुस करने की कोशिश आप करेंगें.... आपके राय की मुनंतजीर..... :) भीड में युहीं हम टेहल रहे थे ये सोच कर के हम अकेले हैं चलते गऐ हम बस चलते गऐ न जानते हुऐ के मंजर किधर है मौसगी का तकाजा था जो हम भी थे कुछ बेहके बेहके से के अचानक से लगा जो हम अकेले से थे कोई साथ हो लिया हाथ हमारा पकड के इस दोसती को मेहसुस ही कर रहे थे के भीड से ये आवाज आई "कौन हो तुम, कया जात हो तुम कहाँ से आये और कया चाहते हो तुम?" अचानक ही सब थम सा कयों गया ये जो लुतफ है इसे उठाने कयों न दिया साकी की खुशी मना भी न सके के "फिजा" ये सवाल उठ खडा हो गया कया मैं ऐक इंसान नही हुँ? कया सिरफ इतना नही है जरुरी? इनही खयालात में हम फिर खो गये भीड में अकेले हम!!!! ~फिजा

तेरा इंतजार करती है ....!!!!

आसमान में जब घने बादल छाऐं हों और बारिश की सिरफ गुंजाईश ही हो तब ऐक अजीब सी उलझन और विचलित सा मन हो जाता है....ऐसे में मन के तार किस राग की धुन बजाने लगते हैं... ये घने शाम के बादल मुझ से तेरा पता पुछते हैं और मैं इन फिजाओं में उडते पंछियों से तेरी खबर लेती हुँ तु जो परदेस गया है तो न खबर लौट के ली तुने के मेरी हर साँस तेरा इंतजार करती है लौट आ! के मेरी रुह अब तडपाती है लौट आ...!! ~फिजा

जिंदगी बहुत अनमोल है......!

जिंदगी में ईंसान बहुत कुछ सिखता है...अपने घर से...अपने पाठशाला में अधयापिकाओं से...अनया छातराओं से....किसी न किसी की जीवनी से...तो कभी आस पास की चीजों से...इन सब से बडकर जो अधयाय ऐक ईंसान....ऐक बालक या बालिका सिखती है वो है अपने ऐक मातर घर और परिवार से!!! अकसर पढा है मैंने कि ऐक छातरा की पेहली पाठशाला और अधयाय उसकी माँ होती है....किंतु मेरे जीवन में मेरी माँ का हाथ तो बहुत बडा है मुझे ऐक औरत बनने में किंतु मेरे पिता का जो योगदान है वो बहुत बडा है...! उनहोंने, मुझे जिंदगी की कडवी सचचाईयों से उन दिनों से ही परिचय करवाना शुरु कर दिया था ....जब मैं अपनी दुनिया और जिंदगी को सिरफ अपने परिवार के इरद गिरद ही पाती थी मैं तो अनजान थी के...ऐसे भी कोई पल होंगे जहाँ हम अपने माता पिता, भाई बहन से दुर होंगे...कभी अपनी दुनिया केहने में उन लोगों का सिरफ साया होगा....साथ न होगा...!!! ऐसे अनजाने बचपन में पिताजी के मुहावरें....बहुत गेहरे असर छोड जाती थीं....मन अकसर सोच में पड जाता और उन मुहावरों को हकीकत का रुप देकर उसे देखने और परखने की कोशिश किया करती थीं...... दुनिया में सभी अकेले हैं इसिलिऐ अकेले होने...

बचपन के वो पल !!!!

मेरे जीवन के वो पल....वो पल जिसे शायद ही कोंई अपनी जिंदगी से निकाल पाता हो...! हम कितनी भी लंबी डगर पर निकल पडें किंतु ईस पल से कभी पीछा नही छुटता....जी हाँ बचपन के वो पल....वो पल जिस की याद में...जिसकी सुगंध में वो खुशियों के पल होते हैं....जो ना केवल उन दिनों की याद दिलाते हैं बलकी, उन यादों से इस पल को भी मेहका जाते हैं...! सुगंध जिसकी जिंदगी में फैल जाती है....ऐक सुरयोदय की भाँति...दिन का आरंभ कर देतीं हैं परंतु....सुरयासत की तरह....वो हलकी सी लालिमा जो उदास कर जाती है...के कितने अछे थे वो पल...काश उस पल में हम लौट सकते... जी हाँ इंसान का मन बडा चंचल होता है और इसी चंचलता के लकशण हैं कि मन नऐ नऐ अठखैलियाँ खेलता है जीने की राह ढुंढते हुऐ....निकल पढता है...ऐसे ही कुछ पल....इस कविता में पिरोने की ऐक माञ परयास........ मेरे जीवन के वो पल याद आते हैं रेह रेह कर वो कक्षा में जाना और मिलकर धुम मचाना पर मासटर जी के आते ही.... चुपके से हो जाना फुर!!! काश ये बचपन ऐसे ही सदा रेहतीं मेरे संग पापा की वो पयारी दुलारी बनकर माँ को जलाना फिर ऐसे ही कुछ हरियाली पल याद आते हैं रेह रेह कर!!! अब तो सिरफ...