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Showing posts from November, 2015

इस ज़िन्दगी का क्या?

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जीने का जब मकसद ख़त्म हो जाये  तब उसे जीना नहीं लाश कहते हैं  लाश को कोई कब तक ढोता है? बदबू उसमें से भी आने लगती है...  क्यों न सब मिलकर खत्म कर दें  इस ज़िन्दगी को ? मरना आसान होता मदत नहीं मांगते  कोशिश भी करें? तो कहीं बच गए तो ? खैर, किसी को खुद का क़त्ल करवाने बुलालें  काम का काम और खुनी रहे बेनाम  मुक्ति दोनों को मिल जाये फिर  इस ज़िन्दगी का क्या? मौत के बाद की दुनिया घूम आएंगे  कुछ वहां की हकीकत को भी जानेंगे  समझेंगे मौत का जीवन जीवन है या  ज़िन्दगी ही केवल जीवन देती है? जो भी हो एहसास तो हो पाये किसी तरह  ज़िन्दगी तो अब रही नहीं मौत ही सही  इस ज़िन्दगी में रखा क्या है? ~ फ़िज़ा 

एक उड़ान सा भरा लम्हा जैसे ...!

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मोहब्बत भी एक लत है  जो लग जाती है तो फिर  मुश्किल से हल होती है  एक घबराहट तब भी होती है  जब ये नयी -नयी होती है  और तब भी जब बिछड़ जाती है  एक डर जाने क्या अंजाम हो आगे  या फिर एक अनिश्चितता  एक उड़ान सा भरा लम्हा जैसे  रोलर कोस्टर सा जहाँ डर भी है  और एक अनजानेपन का मज़ा भी बहलते-डोलते चले हैं रहगुज़र  जब-जब होना है तब होगा  अंजाम होने पर देखा जायेगा  मोहब्बत भी क्या चीज़ है दोस्तों! ~ फ़िज़ा 

स्वर्ग है या नरक ...!!!

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स्वर्ग हो या नरक  दोनों ही एक रास्ते  के दो छोर हैं  कभी नहीं मिलते मगर  साथ भी नहीं छोड़ते  रास्ता जो है ज़िन्दगी  बस, चलती रहती है ! कहते हैं अभी जहन्नुम  और जन्नत यहाँ कहाँ है  वो तो मौत के बाद हासिल है  किसने कहा की मौत आसान है  मौत के लिए भी करम करने होते हैं  इस करके भी स्वर्ग और नरक  दोनों इसी जहाँ मैं हैं ! जीना है तो दोनों के साथ  वर्ना मौत तो एक बहाना है  एक नए दौर पर निकलने का  नयी राह थामने का  एक नए सिरे से ढूंढने का  स्वर्ग है या नरक  दोनों यहीं हैं भुगतना ! ~ फ़िज़ा 

दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।

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घर महलों सा सजाने से  कभी भी घर नहीं बनता  दिखावे की मुस्कराहट से चेहरा नहीं खिलता ।  आईना नया क्यों न हो चेहरा वही नज़र आता   दिल में नफ़रतें पालो मुस्कराहट सच्चा नहीं लगता ।  धन बटोर लो जहाँ में मन संतुष्ट नहीं हो पाता  घर हो बड़ा एक कबर की जगह नहीं दे सकता ! सँवरने का मौसम हैं ख़ुशी पास से भी न गुज़रता  कीमती हो लिबास कफ़न का काम नहीं करता !  दिखावे की ज़िन्दगी, दोस्त हक़ीक़त शाम को है मिलता  कभी मौत दस्तख दे तो मिट्टी के लिए इंसान नहीं मिलता । 'फ़िज़ा' सोचती है ये पल अभी है कल कहाँ होता ? जो है वो आज है अब है सब कुछ यही रेह जाता ।   ~ फ़िज़ा'

इंसान होना भी क्या लाचारी है!

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दिल कराहता है  पूछता है मैं क्या हूँ?  क्यों हूँ?  किस वजह से अब भी ज़िंदा हूँ? वो सब जो मायने रखता है  वो सब जो महसूस के बाहर है  वो सब आज यूँ आस-पास है  और मैं ये सब देखकर भी  ज़िंदा हूँ क्यों हूँ?  लोग मरते हैं आये दिन  बीमार कम  और वहशत ज्यादा  प्यार कम और नफरत ज्यादा  अमृत कम और लहू ज्यादा  ये कैसी जगह है? ये क्या युग है जहाँ  लहू और लाशों के  बाग़ बिछाये हैं  लोग कुछ न कर सिर्फ  दुआ मांग रहे हैं  इंसान होना भी क्या लाचारी है! हैवान पल रहे हैं, राज कर रहे हैं  मैं क्यों अब भी ज़िंदा हूँ? क्यों आखिर मैं ज़िंदा हूँ? ~ फ़िज़ा 

पतझड़ में गिरा पत्ता...!

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पतझड़ में गिरा पत्ता  वो भी गीला  हर हाल से भी   रहा वो  नकारा  न रहा वृक्ष का  न ही किसी काम का  बस जाना है धूल में  धरती की गोद में  जी के न काम आये  तो क्या मरके खाद बन जायेंगे ! ~ फ़िज़ा