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मेरे सपनों की बुनी एक किताब

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ज़िदंगी में सपने कौन नहीं देखता...और फिर उन्‍हीं सपनों को सच करना एक ख्‍वाब से बढ़कर कुछ नहीं होता, तब तक जब तक कोई आपको प्रोत्‍साहित नहीं करता. जी हाँ, मैं दोस्‍तों की बात कर रही हूँ. मैंने एक सपना देखा है अपनी कविता की एक किताब...जो के मैं अपने मित्रों और निकटजनों की सहायता से और आप सभी साथियों के आशि॔वाद से नये साल की फरवरी महीने की चौदह तारिख तक पबलिश करने का प्रयत्‍न कर रही हूँ. आशा है मुझे आप सभी का सहयोग प्राप्‍त होगा... ज़िंदगी में एक ख्‍वाब मैंने भी बुना है मन ही मन कुछ सिला है पुरे होने की आरजू़ है लेकिन साथ मेरा कोई दे..!?! इसी की आकाँशा है! दोस्‍तों का साथ हो बडों का आशि॔वाद हो मेरे सपनों की बुनी एक किताब कहो! है न मेरे सर पर आपका हाथ? ~फिज़ा

तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं?

अकसर दिल में छुपी बातों का इज़हार चेहरा या फिर आँखें कर ही देतीं हैं चाहे लाख कोई उसे छुपाये ऐसे ही एक पल को दर्शाते हुऐ कुछ कडियों को जोडने का प्रयास किया है... उम्‍मीद है मेरे दोस्‍त इसिलाह ज़रुर करेंगे... जब भी उनसे मुलाकात होती है हालत-ए-दिल अजब सी होती है चेहरा कुछ तो निगाह कुछ होती है तबियत फिर कुछ खराब होती है दिल से एक सवाल उठता है... तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं? जब मेरे आँगन के झूले में वो लपक के खुशी से झुमते हैं मन ही मन में मुस्‍कुरा के फिर वो चुप-चाप से हो जाते हैं... दिल से एक सवाल उठता है... तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं? इतनी इज़हार-ए-खुशी के बाद भी आँखें क्‍यों सच बोलती हैं क्‍यों नहीं छुपाया जाता फिर दिल में पिन्‍हा जो बात होती है... दिल से एक सवाल उठता है... तेरी आँखें क्‍यों उदास रेहती हैं? ~ फिजा़

हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई

कभी ऐसा हुआ है जब आप अकेले हों फिर भी ख्‍यालों का मेला लगा हो और कभी मेले में रेहकर भी अकेलापन मेहसूस किया हो? ऐसे ही एक पल को यहाँपेश करने की कोशिश.... तुम्‍हॆं ज़माने के साथ ही रेहना है हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई तुम मिले तो केह दिया अलविदा विरानों को क्‍या पता था ज़रूरत है अब भी विरानों की हमें पहली बार मिले तो ख्‍वाबों की दुनिया से जुडाये रखा आज साथ हैं तो हकीकत से मुलाकात हुई सोचा था न करेंगे गलतियाँ अब की बार वही दुख है दोहरा रहे हैं ज़िदगी बार-बार पत्‍थरीले ज़मीन से हटकर चलना चाहा देखा कोई और ज़मीन ही नहीं हमारे आस-पास अब तो आदत सी पड गई है चलने की मख़मली से हो चला है परहेज़ पैरों को सँवारने चले थे हम ज़िंदगी अपनी आबाद हो चला कोई और हम वहीं के वहीं दस्‍तक देती है 'फिज़ा' विरानों को कमबख्‍़त, बेवफा हो चले हैं हमसे 'फिज़ा'

वक्‍त-वक्‍त की बात है

अक्‍सर,सुना जाता है -"घर की मुर्‍गी दाल बराबर" कुछ ऐसी बात को दरशाने की एक कोशिश मात्र... राय की मुँतजि़र... दूर हम कब थे जो पास आकर फासले बना गये प्‍यार की निशानी जो बन के कँवल खिला गये तुमने तो हमें ही भूला दिया उसके हँसने पर रोने, पर जो आ जाती हैं बेचेनियॉ कभी हमसे दूर रेहकर हुआ करतीं थीं ये मदहोशियॉ जब लिखी जातीं थीं कविता तो कभी शेर की पोथियॉ फासले को भरना ठीक समझा प्‍यार की निशानी से अनमोल मोती वो नैनन का अपनी ही माला में पिरोकर सँवर लेते हैं उनके लिये कभी जब याद आयेंगे तब पेहचान होगी हमारी फिर मुलाकातों का सिलसिला तो कभी चाहतों की फरमाइशें वक्‍त-वक्‍त की बात है हम भी थे नैनन का नगिना ~फिजा़

एक नया बीज़ बन के कोई अरमान

अक्‍सर इंसान ख्‍वाब देखता है किंतु उसे पूरा होते देखने में कई बार वो आडंबरी रस्‍मों में फँस जाता है क्‍योंकि वो भी आखिर इन्‍हीं गुँथियों में गुँथ जाता है बहुत दिनों बाद पेश है ....राय की मुंतजि़र दिल की धडकन आज फिर हूई है जवान के तरंगों का कारवाँ हुआ हैवान सुखी बँज़र ज़मीन पर आज फिर एक नया बीज़ बन के कोई अरमान आँखों से तो ले ही गया नींद दे गया हजा़रों सपने जवान कल जब कहा था छू कर के मेरा हाथ दिल भी और जान भी रेह गये हैरान इंतजा़र मे़ है 'फिजा़' ये दिल अब तो के कब रस्‍मों से हों रिश्‍ते बयान फिजा़