Saturday, October 27, 2007

हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई

कभी ऐसा हुआ है जब आप अकेले हों फिर भी ख्‍यालों का मेला लगा हो और कभी मेले में रेहकर भी
अकेलापन मेहसूस किया हो?
ऐसे ही एक पल को यहाँपेश करने की कोशिश....

तुम्‍हॆं ज़माने के साथ ही रेहना है
हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई

तुम मिले तो केह दिया अलविदा विरानों को
क्‍या पता था ज़रूरत है अब भी विरानों की हमें

पहली बार मिले तो ख्‍वाबों की दुनिया से जुडाये रखा
आज साथ हैं तो हकीकत से मुलाकात हुई

सोचा था न करेंगे गलतियाँ अब की बार
वही दुख है दोहरा रहे हैं ज़िदगी बार-बार

पत्‍थरीले ज़मीन से हटकर चलना चाहा
देखा कोई और ज़मीन ही नहीं हमारे आस-पास

अब तो आदत सी पड गई है चलने की
मख़मली से हो चला है परहेज़ पैरों को

सँवारने चले थे हम ज़िंदगी अपनी
आबाद हो चला कोई और हम वहीं के वहीं

दस्‍तक देती है 'फिज़ा' विरानों को
कमबख्‍़त, बेवफा हो चले हैं हमसे

'फिज़ा'

3 comments:

Udan Tashtari said...

अरे वाह, तुमको तो ६ महिने बाद देखकर लग रहा है जैसे सालों से गायब थी. हो कहाँ तुम?? आशा करता हूँ सब ठीक ठाक होगा. लगता है कुछ फुरसत मिली है तो जरा नियमित लेखन हो जाये. बहुत शुभकामनायें. :)

आशीष कुमार 'अंशु' said...

Wah-Wah aapaka BLOG pasand aaya.

RC Mishra said...

बहुत अच्छा लिखा है, कुछ लाइनें चुरा रहा हूँ पर्सनल यूज के लिये :)।

कोशिश कीजिये हिन्दी मे नियमित लिखने की, हम सबको अच्छा लगता आपका लिखा।

और मुझे एक चीज और चाहिये...

मुँह की बात सुने हर कोई... की एम पी थ्री फ़ाइल, हो सके तो भेजियेगा। इसको सबसे पहले 'नीम का पेड़', दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक मे सुना था, अभी यहाँ पर सुनके वही माहौल याद आ गया।
धन्यवाद।

Garmi

  Subha ki yaatra mandir ya masjid ki thi, Dhup se tapti zameen pairon mein chaale, Suraj apni charam seema par nirdharit raha, Gala sukha t...