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Showing posts from April, 2006

पेहली नज़र का धोखा

धोखा अकसर हो जाता है, कभी नादानी में तो कभी अंजाने में... जो भी हो धोखा तो धोखा है.... :) पेहली नज़र में दिल का खोना जा़लिम ये किस कदर का धोखा बातें ही मुसलसल हुईं थीं फिर खत्‍म हुआ सब्र दिल का जा़लिम ने चल दिया अपनी चाल रेह गया दिल अब स्रिफ रफि़क का रफ्‍ता-रफ्‍ता दिल करने लगा इक़रार अब तो जैसे रकि़ब हुआ है मेरा हाल उस से इज़हार-ए-मुहब्‍बत में रक्‍स-ए-ता-उस दिल हुआ जाता रग-ए-जान में मेरे जैसे तुम बसे हो रघ़बत सी अनंजुमन में कोई बस जाता रफि़क = friend रकि़ब = enemy रक्‍स-ए-ता उस = dance of the peacock रक्‍स-ए-जान = in my viens of my life रघ़बत= strong desire, pleasure ~ फिजा़

औफिस केक्‍युबिकल से....

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अक्‍सर बचपन में आधुनिक कवियों की कविताओं में अँग्रेज़ी शब्‍दों का प्रयोग देखा है, और आज औफिस में बैठकर जब कुछ पल अपने साथ बिताया तो अनायास ये इच्‍छा पुरी होती नज़र आई! ज्‍यादा कुछ यहाँ कहे बगैर आगे का ब्‍यौरा नीचे लिखित शब्‍दों में... चित्रकारी स्‍वयं फिजा़ के हाथों....;)... किसी भी गुस्‍ताखी़ के लिऐ पेहले से ही खे़द है। दिल बेचैन सा है, खाली वक्‍त है और दफ्‍़तर की मेज़ है। काम न हो तो भी, काम जताने की रीत है जब काम ही न हो तो भला क्‍या काम करें के वक्‍त कट जाऐ। ये वक्‍त काटना भी क्‍या काम है...!?! पहाड़ खोदने से न कम है मेरी असमंजस तो देखो कभी कंप्‍युटर स्‍क्रीन देखूँ तो कभी सामने रखे टिशु बौक्‍स को। हो न हो इस एकांकीपन में टिशु बौक्‍स पर बनी चिडी़या फूल, पत्ती और उसकी डाली इन सब से दिल लगा बैठी, ये 'फिजा़'! उठाया पेंसिल हाथ में और कर ली चित्रकारी शुरूआत टिशु पेपर से, फिर प्रिंटाउट पेपर और फिर नोट-पैड पर... यकायक ऐसा लगा मानो मुझ में अभी है और अरमान पंछी संग उड़ती पुरवाई मानो इस दिल ने जाना फूलों की खुश्‍बूओं को जैसे मेहसूस किया मन विचलित होकर उड़ने लगा...कहीं दूर इस औफिस केक्...

एक तुम से न हो पाये दूर शाम-ओ-सेहर

इंतजा़र, एक ऐसा अ‍क्षर है जो हर किसी को बेहाल करता है। कई बार असमंजस में डाल देता है तो ....कभी क्रोधित भी...किंतु ...परंतु इंतजा़र हर कोई करता है; चाहे वो बसंत का हो, या नौकरी का या फिर बरखारानी ...इंतजा़र तो भाई! शामो-सेहर होता है। :) क्‍या पता था इंतजा़र में हो रहे थे बेखबर जिसका करते रहे इंतजा़र शाम-ओ-सेहर चाहत कुछ इस कद्र बढी़ है उनसे के हर फासले हो रहे ना-कामीयाब शाम-ओ-सेहर मेरे दिल ने फैसला किया आज उस दिवाने से कोशिश करेंगे याद करें शाम-ओ-सेहर किस तरह वादा करें हम याद न करने का जब भुला ही न पाये हम शाम-ओ-सेहर गली, शहर सब घुमें 'फिजा़' दूर-दूर एक तुम से न हो पाये दूर शाम-ओ-सेहर ~ फिजा़

बूँदें

कल से बडी ज़ोरों से बारिश हो रही है...ऐसी घमासान बारिश के बस पूछो नहीं। मन तो करता है, जैसे निकल पडें बरसात में ऐसे बिना बरसाती और छाते के फिर जो हो सो हो.... बारिश की बूँदें जब टप-टप करके गिरतीं हैं कितने सुहाने और मीठे ऐहसास ये जगातीं है। मोतियों सी ये बूँदें मन पर चंचल वार करतीं हैं आवारा बादल की भाँति मन, सुहाने पल में खो जाता है। कितने ही पल में जी उठती हुँ हर बूँद जब मिट्‍टी से जा मिलती है मेरे भी चंचल मन में इंद्रधनुष सी रंगत भर देतीं हैं। छोटी-छोटी बूँदों जैसे उनकी बातें मन के ख्‍यालों में सौ बीज हैं बोतीं उन बीजों को सिंचने के नये-नये हल ढुंढ निकालती। कब बूँदों जैसे मैं मिल जाऊँ दरिया के सिने से लग जाऊँ उन के ही रंग में रंग जाऊँ कैसा जादू कर देतीं हैं। सावन के ये बरसाती बूँदें कहीं हैं ये उमंग लातीं कहीं ये सुख-चैन ले जातीं दोनों ही पल सबको सताती। कुछ मीठे तो कुछ खट्‍टी यादें हर एक का मन ललचातीं ऐसी ही कुछ सपने बुनने वो कुछ पल हमको दे जातीं। एक उषा की किरण जैसे सबके मन में विनोद हैं लातीं कितने ही सच्‍चे और मीठे जीने की हैं राह दिखाते। ~ फि़जा़

जाना! सुबह हो गई...

बहुत दिनों बाद कुछ लिखने की आस जागी, ठीक उसी तरह जिस तरह खेतों में अँकुर खाद, पानी और रवि की किरणों से प्रज्‍जवलित हो उठतीं हैं। प्रातःकाल, स्‍नान लेते वक्‍त कुछ बातें अकस्‍मात ही मन कि आँगन में खलबला उठीं... बातें जो शब्‍द बनकर ध्‍यान में विचरण करने लगीं...बस दिल उन्‍हीं ख्‍यालों को पिरोने लालायित हो उठा... इस नाचीज़ की ये एक कृति कुछ इस तरह पेश है.... कल रात कुछ थकीं-थकीं सी थीं और उनकी बाहों में नींद का आना उषा की लालिमा चारों ओर फैल चुकीं थीं फिर भी मैं नींद की गहराईयों से लिपटी पडी थीं इतने में उनका आना मानो एक किरण बनकर मुझे नींद की गोद से उठाना और प्‍यार से केहना - जाना! सुबह हो गई... ये लो कौफी का ये प्‍याला ! मानो, मेरी सुबह रोशन हो गई उनके प्‍यार की खुश्‍बू मेरे दिन को मेहका गई मैंने धीरे से पलकों के किवाड़ों को खोलने की कोशिश की... मानो, दिल और नींद की असमंजस में और इसी द्वंद में फँसी रही... आज भी नींद की खुश्‍क वादियों में फि़जा़ बनकर मेहकती रही.. ~ फि़जा़