कमरों से कमरों का सफर
सेहर से शाम शाम से सेहर तक ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक बहुत त्याग मांगती रहती हैं जब तक है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक? तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक? ~ फ़िज़ा #हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९