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कमरों से कमरों का सफर

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सेहर से शाम शाम से सेहर तक  ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक  कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक  तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक  ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक  बहुत त्याग मांगती  रहती हैं जब तक  है क्या इस ज़िन्दगी का लक्ष्य अब तक  इसके मोल भी चुकाएं हो साथ जब तक  ये जीना भी कोई जीना सार्थक कब तक  खिलने की आरज़ू बिखरने का डर कब तक  एहसासों की लड़ियों में उलझा सा मन कब तक  आखिर नियति का ये खेल कोई खेले कब तक? तोड़ बेड़ियों को सीखा स्वतंत्र जीना अब तक  इस नये मोड़ के ज़ंजीरों में जकड कर कब तक  यूँहीं आखिर कमरों से कमरों का सफर कब तक? ~ फ़िज़ा  #हिंदीदिवस #१४सितम्बर१९४९   

रास्ते के दो किनारे

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  रास्ते के दो किनारे संग चलते मिल न पाते मगर साथ रेहते   मैं इन दोनों के बीच चलती  भीड़ में रहकर तनहा सा लगे  किसी अनदेखे खूंटी से जैसे  अपने आपको बंधा सा पाती  छूटने की कोशिश कभी करती  फिर ख़याल आता किस से? बहुत लम्बा है ये सफर मेरा  कब ख़त्म होगा कहाँ मिलेगी  ये राहें कहीं मिलेंगी भी कभी? थकान सा हो चला है अब तो  किसी तरुवर की छाया में अब  विश्राम ही का हो कोई उपाय   निश्चिन्त होकर निद्रा का सेवन  यही लालसा रेहा गयी है मन में  तब तक चलना है अभी और  जाने कहाँ उस तरुवर का पता    जिसके साये में निवारण शयन का ! ~ फ़िज़ा