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Showing posts from July, 2019

बस इंतज़ार है के कब दीद हो रंगीन फ़िज़ा में !!

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किसी के रहते उसकी आदत हो जाती है  उसके जाने के बाद कमी महसूस होती है ! हर दिन के चर्ये का ठिकाना हुआ करता है   अब जब गए तो राह भटके से ताक रहे हैं ! जब साथ रहते हो तब उड़ जाते हैं हर पल अब काटते नहीं कटते ठहर गए सब पल !  महसूस हो गया है तुम्हारे रहने और न रहने में  बस इंतज़ार है के कब दीद हो रंगीन फ़िज़ा में  !! ~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे?

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ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे? जब ज़िन्दगी ही कुछ न कर सके  बहती धारा की तरह निकलती है  सरे आम घूम-घाम कर बढ़ती है  और देखो तो ज़िंदगी मझधार में  सीखा देती है अपने और पराये  अपने होते हैं कम होते हैं और  पराये करीब अपने से लगते हैं क्यों ज़िन्दगी ऐसा सब सीखाती  मगर सोचने पर मजबूर करती है  ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे? जब सोचा था नहीं पड़ना है कहीं  झमेलों से बचना है आगे बढ़ना है  जिसे जो चाहे वो ले लेने दो उसे  न भावनाओं में बेहना है किसी के  न ही किसी का उद्धार करना है  अपना जीवन जी लो तो बहुत है  न मुसीबत को मोलना न झेलना  जिनसे भी मिलना मिलनसार रहना  अकेले आये हो अकेले चले जाना  ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे? ~ फ़िज़ा  

कल चौदहवीं की रात नहीं थी, मगर फिर भी!!!!

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कल श्याम कुछ थकी थकी सी थी  कल पटाखों से भरा आसमान था  जाने -अनजाने लोगों से मुलाकात  फिर घंटों बातें और सोच में डूबे रहे  वक़्त दौड़ रही थी और हम धीमे थे  चाँद श्याम नज़र तो आया था मुझे  पर रात तक तारों के बीच खो गया  मगर मोहब्बत की लौ जला चूका था  रात निकल रही थी कल के लिए और  हम अब भी सिगार सुलगाते बातें करते  वो मेरे पैर सहलाता बाते करते हुए  बीच-बीच में कहता 'I love you' midnight का वक़्त निकल गया  मगर यहाँ किसे है कल की फ़िक्र  घंटों मोहब्बत और भविष्य की बातें और फिर तारों को अलविदा कर  चले एक दूसरे की बाहों में सोने  लगा तो था अब नींद में खो जायेंगे  मगर दोनों एक दूसरे में ऐसे खोये   काम-वासना-मोहब्बत-आलिंगन  की इन मिश्रित रंगों में खोगये  समझ नहीं आया रात गयी या  सेहर ठहर सी गयी !!! ~ फ़िज़ा  

परछाइयाँ

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सवाल करतीं हैं मुझ से मेरी परछाइयाँ  जवाब दूँ तो क्या सुनेंगी ये परछाइयाँ ? कुछ कहते हैं बेजान होती हैं परछाइयाँ  मौका मिले वहां पीछा करती परछाइयाँ  कभी डराते पीछे-पीछे चलकर परछाइयाँ  तो कभी हौसला दे आगे आकर परछाइयाँ  समय के साथ-साथ ये बदलती परछाइयाँ  कभी लम्बी तो कभी छोटी बनती परछाइयाँ  फिर भी मुझ से करतीं सवाल ये परछाइयाँ  कहो तो क्या कहूं मैं इनसे जो हैं परछाइयाँ  जानतीं तो हैं ये सब साथ जो हैं परछाइयाँ  सवाल करतीं हैं मुझ से फिर भी परछाइयाँ  अब जवाब दूँ भी तो क्या दूँ ऐ परछाइयाँ ? ~ फ़िज़ा