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हम दोनों हैं इंसान!

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हर बात पे पूछते हो के तू क्या है ? क्यों हर बार मेरी औकात पूछते हो ? जैसा भी हूँ, ऐसा ही हूँ आपके सामने  गर कुछ काम-ज्यादा हो तो संभालो  आखिर मैं भी एक इंसान हूँ ! ज़िन्दगी के मायने किसने लिखवाये ? जो हर कोई मिसाल जीने के देता रहे? इंसान हूँ मैं अच्छा थोड़ा बुरा भी मगर  जीने के कठीन राहों पर भटकता हुआ  ग़लती कर बैठूं तो क्या, इंसान हूँ ! कुछ लोग क्यों औरों पे इल्ज़ाम दें? क्यों स्वार्थी होकर भी न्याय मांगे? अपने दम पर खुशियां देते हो मगर  जताते हो दुनिया का जुल्म सहते हो  समझता हूँ यही कहोगे के इंसान हूँ ! जब सारा फसाद इंसानो का है तब? क्यों नहीं आपस में मिल जाएं हम? एक-दूसरे की खामियों को अपनाकर  उसमें अपनी-अपनी खूबियां भर दें तो  आख़िरकार सच तो यही है न - हम दोनों हैं इंसान! ~ फ़िज़ा 

स्त्री को आम इंसानों जैसा जीने देना !

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स्त्री सिर्फ देने का नाम नहीं  कर्म से और कर्तव्य से कम नहीं  हाव-भाव में बेशक तुम सी नहीं फिर भी हर काम में किसी से कम नहीं ! बेटी का रूप लेकर कोई ग़म नहीं  बेटी, बेहन बन फुली न समायी नहीं  दुल्हन बन वो बाबुल को भुलाई नहीं  ससुराल की बनकर रहने में शरमाई नहीं ! प्यार का भण्डार है वो कतराई नहीं  सहारा देना पड़ा देने से घबराई नहीं  मुसीबतों से लड़ने से कभी हारी नहीं  हर काम करने से वो हिचकिचाई नहीं ! बेटी, बेहन, बीवी, बहु, माँ होने से डरी नहीं  काली का रूप लेकर सीख देने से हटी नहीं  स्त्री हर मुसीबत को सहने से झिझकती नहीं  फिर स्त्री को पुरुष जैसी आज़ादी क्यों नहीं ? कुछ लोग उसे खूसबसूरत कहते हैं  कुछ लोग उसे चुड़ैल भी कहते हैं  हर तरह के नाम देकर भी उसे पूजते हैं  स्त्री को भी इंसान क्यों समझते नहीं ? आखिर क्यों समझे इंसान स्त्री को  जब वो सबसे अलग होकर भी अबला है  सीता से लेकर दुर्गा की छवि रखती है  हाँ ! हो सके तो स्त्री को आत्मनिर्भर रखना ! उसे अपने हक़ ...