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Showing posts from January, 2016

न थी कभी...!

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न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी न थी किसी से कोई बंदगी  मुश्किल में साथ थी हौसला  न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी  न थी किसी से कोई बंदगी ! हर हाल में सीखा मुस्कुराना  दिया हौसले का नज़राना  न हताश हुई ये ज़िंदगानी  न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी  न थी किसी से कोई बंदगी ! वो पल भी आया थक गए  वक़्त आया अब निकल गए   न  जीने की लालसा रही कोई  न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी  न थी किसी से कोई बंदगी ! सूखे पत्तों का ढेर है अब  चाहो तो तिल्ली झोंकलो अब  जलने का न डर  है कोई  न थी कभी ऐसी ज़िन्दगी  न थी किसी से कोई बंदगी ! ~ फ़िज़ा 

गणतंत्र दिवस की सुबह ...

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गणतंत्र दिवस की सुबह  का बेसब्री से इंतज़ार  बचपन हो या अब  साज और सोज़ वही  जस्बा देश-भक्ति का  जवानों की टोली  सीना चौड़ा कर  देश के चोरों को  सलामी देते हुए  अश्रु भर आते हैं  नयनों में के जानकार भी  चोरों की सत्ता है  जवान देश के लिए जाँ  कुर्बान करता है  दिल भर आता है  ये आँख बंद करके  कूद पड़ते हैं  ऐसी देश-भक्ति  को मेरा शत-शत प्रणाम  गणतंत्र दिवस एक  आँखों में नमी का एहसास  बहुत देर तक रेह जाती है   मन भावुक हो जाता है  शहीदों को सलाम  मेरे देश के सेनाओं को  सलाम! ~ फ़िज़ा 

अब लाश है 'फ़िज़ा' मिन्नतें नहीं करती...!

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उसने दिल तोड़ने का सबब कुछ ऐसा दिया  न किसी को जीने दिया न ही मरने दिया ! ज्ञानी कभी संभलता है तो संभालता है  मगर अज्ञानी जीने का पथ ढूंढ लेता है !  कहते हैं  माफ़ कर देना कठिन है  कहने को तो सब कहते हैं जुग -जुग जियो ! वो खुद डरता था अपने आप से पागल  कहता है मैं शक करती हूँ उसपर !  उसकी हर बात पे औरत का ज़िक्र करना ऐसा  मानो किसी को परेशान करने की साज़िश ! कौन जीता है तेरे सर होने तक ऐ इंसान  ज़िन्दगी किसी की जागीर नहीं होती ! उसकी उदासी छा जाती माहोल में हर पल  जब भी मुझे मुस्कुराते देखता वो हरजाई ! अब लाश है 'फ़िज़ा' मिन्नतें नहीं करती  वक़्त का क्या है जब आये तब ले जाये हमें !! ~ फ़िज़ा 

बस इंतज़ार रहता है ...!!!

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किसी ने पुछा ख्वाब में आकर  तुम्हें पता चले आखिरी पल है गर  तब तुम क्या करोगे ? बहुत सोचा क्या करूंगी? क्या न करूंगी?  फिर यही जवाब आया निकल  जैसे अब जी रही हूँ  वैसे ही जियुंगी आगे भी सनम  पहले भी ज़िंदादिली  और अब भी  फर्क इतना है मैं खुश हूँ  मेरी टिकट जल्दी और आपकी बाद में ! पूछनेवाला सोच में पड़ गया  ये कैसा जवाब है? मरने से डर क्यों नहीं? लपक कर जवाब हलक से निकला  अमर तो कोई नहीं यहाँ पर  आज मैं तो कल तुम  बस जाना सभी को है तो पहले कोई भी हो जाने का  बस इंतज़ार रहता है  इंतज़ार जो कभी ख़त्म नहीं होता ऐसा कोई ख़्वाब में आकर  यूँही पूछ बैठा था कल ! ~ फ़िज़ा 

तो मैं चलूँ?

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मैं जब आया था  चलना तक नहीं आता था  धीरे-धीरे सीखा चलना  धीरे-धीरे सबको जाना  रहा परिवार में सबके संग  फिर निकल पड़ा अकेला  ढूंढ़ते, चलते मिला किसी को  बना लिया संग जीवनसाथी  फिर चलता गया संग-संग  जवानी आई योवन भी आया  जैसे आया वैसे ही चला भी गया  बच्चे, जिम्मेदारी ने संभाला ठेला  फिर वक़्त गुज़रा कुछ इस तरह  के फिर लगा अब अकेले हैं  ज़िन्दगी की गाडी चलती ही अकेली  सुनसान रास्ते और गहरा सफर  आये थे अकेले मिले बहुत साथी  अब वो वक़्त भी आया जब  अकेलेपन को लगाया गले  फिर मौत के सफर में गिला नहीं  कुछ रहता नहीं हर दम हमेशा  वक़्त के साथ पत्ते भी सूखकर  गिरजाते हैं पतझर का मौसम जताके  ऐसे में पत्ते को अफ़सोस नहीं होता  ऐसा ही मेरा भी वक़्त आ चला है  तो मैं चलूँ? ~ फ़िज़ा