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Showing posts from June, 2015

भटकते हैं ख़याल 'फ़िज़ा' कभी यहाँ तो कभी वहां हसास ....

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वो दिल मैं ऐसे बैठें है मानो ये जागीर उनकी है  वो ये कब जानेंगे ये जागीर उनके इंतज़ार में है ! ये बात और है के हम जैसा उनसे चाहा न जायेगा  कौन कहता है के चाहना भी कोई उनसे सीखेगा ? वो पास आते भी हैं तो कतराते-एहसान जताते हुए  क्या कहें कितने एहसान होते रहे आये दिन हमारे ! रुके हैं कदम अब भी आस में के वो मुड़कर बुलाएँगे आएं तो सही के तब, जब वो मुड़ेंगे और निगाहें मिलेंगे ! भटकते हैं ख़याल 'फ़िज़ा' कभी यहाँ तो कभी वहां हसास  क्या सही है और कितना सही है ये मलाल न रहा जाये दिल में !! ~ फ़िज़ा 

विस्मरणिया है संगम ऐसा ...

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शुष्क मखमल सी बूँदें  मानो ओस की मोती  लड़ियाँ बनाके बैठीं हैं  एक माला में पिरोये हुए  सुन्दर प्रकृति की शोभा में  बढ़ाएं चार चाँद श्रृंगार में  मचल गया मेरा दिल यहीं  लगा सिमटने उस से यूँ  जैसे काम-वासना में लुत्प  विस्मरणिया है संगम ऐसा  हुआ मैं तृप्त कामोन्माद  मंद मुस्कान छंद गाने मल्हार  प्रकृति का मैं बांवरा हुआ रे  श्रृंगार रस में डूबा दिया मुझे  ~ फ़िज़ा 

'फ़िज़ा' ये सोचती रही कितना चाहिए जीने के वास्ते?

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कुछ लोग जीते ही औरों के कबर के वास्ते  चाहे किसीका कुछ भी हो मरते हैं घर के वास्ते  कहते हैं ज़िन्दगी बहुत मुश्किल है जीने वास्ते  ज़िन्दगी आसान है बनाते मुश्किल किस  वास्ते? दूर-दूर तक न साथ फिर भी रहते एक छत वास्ते  क्यों दुश्वार जीना जब साथ नहीं एक-दूसरे के वास्ते  चंद मगरमच्छ के आँसू हो गए मजबूर ज़िद के वास्ते  बंदा जिए या मरे मगर घर दिलादे फिर मर जाये रस्ते ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं रही अब जीने के वास्ते  'फ़िज़ा' ये सोचती रही कितना चाहिए जीने के वास्ते?   फ़िज़ा