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हर ‘फ़िज़ा’ की पहचान अलग होती है

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  हँसता-खिलता एक बीज, पौधे का रूप धर लेता है, और उसी पौधे की गोद से, फिर एक नया बीज जन्म लेता है। बीज से पौधा, पौधे से फिर बीज— यही तो जीवनचक्र का शांत, अनवरत संगीत है। ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही पहेलियों से भरी है, हर मोड़ सरल नहीं होता, हर राह सीधी नहीं होती। पतझड़ भी आता है अपने समय पर, और कभी-कभी टहनियाँ वक़्त से पहले साथ छोड़ जाती हैं। कौन किसका है यहाँ, कौन किसका नहीं — एक ही जड़ से उगकर भी, हर ‘फ़िज़ा’ की पहचान अलग होती है। ~ फ़िज़ा 

क्या हम अंदर से ही मरचुके

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देखा तो नन्हे-नन्हे पैर  एक दूसरे पर लदे हुए  मासूम सुन्दर और कोमल से  एक तरफ देखा नन्हे पैर  मैदान में दौड़ते व  खेलते हुए  खिलखिलाते चिल्लाते हुए  बच्चे जो ख़ुशियाँ बिखेरते हैं  हमारा कल हमारे बाद भी रहेगा  वही कल आज लहूलुहान है  खून से रंगे लथपथ शरीर  बेज़ुबान लहुलुहान बेजान  हमारा कल हमीं से बर्बाद  क्या हम अंदर से ही मरचुके  आँखों से देखकर भी नहीं चुके  जानवर भी बच्चों का संरक्षण करते  इंसानियत का क़त्ल हो चला है  स्वार्थ ने जगड़ लिया है जहां  ज़िन्दगी फिर वो बच्चों की सही  नफरत और द्वेष में हम सब  यूँही ख़त्म हो जायेंगे हम  मुर्ख, अपने ही पैर मारे कुल्हाड़ी  मगर ज़िन्दगी? पीढ़ी दर पीढ़ी  क्या सीख हैं आनेवाले कल को  ख़त्म करो सभी को सत्ते के लिए  जब अपने पोते-पोती पूछेंगे तुमसे  क्या जवाब दोगे उनको क्या कहोगे? आँख के लिए आँख लोगे अंधे हो जाओगे !! ~ फ़िज़ा   

जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची !

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  तरसती हूँ बचपन की धरती । जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥ धर्म न था तब कोई बँटवारा । सबको मानें एक ही धारा ॥ दीवाली की मिठाई मिलती । ईद की सेवइयाँ भी खिलती ॥ तरसती हूँ बचपन की धरती । जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥ सुनने का था सबमें धैर्य । मन में न था छल कपट न वैर्य ॥ थाली एक, नज़रिया भिन्न । हँसी हटा देती सब क्षुब्ध मन ॥ तरसती हूँ बचपन की धरती । जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥ भाषाएँ अलग, पर मुस्कान । इशारों में मिलता सम्मान ॥ न भय किसी का, न दूरी थी । बस आदर ही आदर छायी थी ॥ तरसती हूँ बचपन की धरती । जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥ चोरी को मजबूरी कहते । करुणा से ही सारे हल लेते ॥ उषा-फ़रज़ाना संग खेल । मानवता का था जीवन मेल ॥ तरसती हूँ बचपन की धरती । जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥ ~ फ़िज़ा 

करना है आरंभ !

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ज़िन्दगी में कुछ हसीन पल  यूँही चले आते हैं बिखेरने   खुशियां ! कभी कुछ सोचकर नहीं  यूँही एक पल में लिया हुआ  फैसला ! वो वक़्त भी आ गया जब  सीखे हुए कला का करना है   प्रदर्शन ! कई भावनायें हैं मन में गुरु दक्षिणा  एवम गुरु के आशीर्वाद से करना है  आरंभ !  ~ फ़िज़ा 

अच्छा लगता है !

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  इन दिनों सब कुछ अच्छा लगता है  किसी को अच्छा लगे या न लगे  मुझे सब अच्छा लगता है ! सैयम और अनुशासन खुद पर  ज़िन्दगी काफी व्यस्त हो गयी है  मुझे अब सब अच्छा लगता है ! नए लोगों से मिलना जुलना  नए शौक नया कुछ सीखना  अब ये सब अच्छा लगता है ! अब मैं खुद पे ध्यान देती हूँ  व्यायाम भोजन सोने पे है मनन   पहले से और अच्छा लगता है ! रोटी कपडा कसरत है ज़रूरी  जीवन के सादगी में है ख़ुशी  ये एहसास अच्छा लगता है ! किसी को फर्क पड़े या नहीं  मुझे फर्क अब नज़र आता है इसीलिए सब अच्छा लगता है ! ~ फ़िज़ा 

दोस्ती

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  दोस्ती क्या होती है कभी सोचा है? रोज़ न मिलें फिर भी स्नेह हो! रोज़ बातें न हों मगर विश्वास हो ! दोस्ती में सिर्फ एक नियम होता है~  प्यार और विश्वास बरकरार रहे ! ज़िन्दगी लंबी नहीं मगर अच्छी हो ! दोस्तों का साथ अपनों का साथ! ख़ुशी के चार बोल सहानुभूति से भरे ! जीने को और सुखद बना दें दोस्त ! किसी ने सच कहा है - 'दुनिया हसीनों का मेला, मेले में ये दिल अकेला ! एक दोस्त ढूंढ़ता हूँ मैं दोस्ती के लिए !' ~ फ़िज़ा 

वो भी क्या दिन थे...!

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 वो भी क्या दिन थे जब खुलकर मिला करते थे  अब मुस्कुराने से झिझकते हैं कहीं मसला न हो जाये ! एक वक़्त था जब घंटों बातें होती खूब हँसते गाते  अब तो बात नहीं बहस के लिए मुद्दे का होना ज़रूरी है ! एक समय सब अपनी राय साझा करते सुन लेते थे   अब तो सबकी राय में हाँ न मिलाये तो गद्दार कहलाते है ! जीवन के पथ पर बहुत कुछ सीखा और समझा है खुश रहने के लिए चीज़ें नहीं चंद खास की ज़रुरत होती है ! कम हैं दोस्त और दोस्ती भी कहाँ है आजकल किसी से  बस 'फ़िज़ा' रिवायतें है जो निभाई जाती हैं मज़बूरी में जैसे ! ~ फ़िज़ा