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Showing posts from May, 2021

मोहब्बत करने लगी हूँ

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  फिर गुस्ताखी करने चली हूँ खुद से मोहब्बत करने लगी हूँ  चाँद अब मेरा पीछा करता है  उस मुये से अब मैं छिपती हूँ  आहें भरते है दोनों तरफ आग  डरती हूँ  और मिलना भी चाहूँ दिल ओ दिमाग से मसरूफ हूँ  गुनगुनाती फ़िज़ा ख्यालों में घूम हूँ  ~ फ़िज़ा 

दिल या दिमाग ?

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  आज कॉलेज के दोस्तों संग  यूँही बातों-बातों में दो पक्ष  दिल व दिमाग की हुई जंग  दिल तो है ही दीवाना मेरा  मैंने तो सिर्फ दिल की सुनी  जो दिमाग के पक्ष में था वो  दिल से दिमाग कह रहा था  साथियों के इमदाद से जो  बहस-मुबाहिसा हुई दोनों में  क्या कहना उस वक्त का  उसे भी हराकर बात बढ़ी  दोस्तों संग फिर कब होंगे  आमने-सामने पता नहीं  पर चैटिंग करते दिन पुराने  कॉलेज के यादों में चला गया  उम्मीद पर कायम है दुनिया  और हम तो मिलेंगे फिर से  जब हो परिहार महामारी का  शायद तब भी दिल और दिमाग  की ही जंग में खुल जायेंगे सब  बचपन के बंधे गिरह दिल के और  दिमाग के ! ~ फ़िज़ा  

गुमशुदा

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  बाहर सुनहरी धुप है  मौसम भी ठीक है  दिल कहीं मायूस  गुमशुदा हो चला है  कोई बात नहीं पर  दिल नासाज़ सा है  इस उदासी की वजह  ढूंढ़कर भी नहीं मिला  शायद बोरियत है  रोज़ वही दिनचर्या  वही लोग और सब  वही घर से बाहर  और बाहर से अंदर  बस पंछियों पर है  ध्यान अटका आजकल  देखा कल ओक पेड़ पे  दो घोसलों का निवास  ख़ुशी हुई कितनों को है  आसरा इस पेड़ से  अब तो बस उन्हें देखते  गुज़रता है वक्त सारा  काम तो व्यस्त रखे  मगर दिल कहीं खोया है ! ~ फ़िज़ा 

माँ

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  माँ  इस शब्द में ही  वो ताकत है जो  जीवन तो देती है  मगर उसे सींचकर  मजबूत बनाती है  हर सुख-दुःख में  हौसला तो देती है  लड़ने की क्षमता  निडरता और संयम  का पाठ सिखाती है  पास नहीं तो दूर से ही  स्नेह के भण्डार से  वो मुस्कान लाती है  एक पल में कान खेंचकर  दो दूजे पल मुंह में निवाला  देने वाली माँ ही तो है  जो सिर्फ अपने बच्चों के लिए  जगती, फिक्रमंद होकर  आज भी पूछती है  खाना खा लिया न? स्नेह, धैर्य, का बिम्ब  है वो माँ ! ~ फ़िज़ा 

यादों का सफर

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  आज यूँही यादों के सफर में निकल गयी  जब हाथ पड़ा पुराने एल्बम पर  एक से दूजा तीजा मन खो गया  उन दिनों की यादें जैसे बचपन लौट आया  वो स्कूल के दिन और उन दिनों की आशाएं  छोटी परेशानियां पढ़ाई के तो खेल का मैदान  मानों सारा दुःख उसी मैदान में उंडेलते  घर से स्कूल और स्कूल से घर का रास्ता  इतना लम्बा नहीं था कभी जितना आज है  तब भी प्रकृति से एक रिश्ता बना लिया था  जहाँ यार-दोस्त हो न हों मगर पक्षियां थे  नदी-नाले फूल-क्यारियां और अमरुद का पेड़  कितने ही बार चढ़कर छत से छलांग लगाया है  काली-डंडा खेलते-खेलते तो कभी माँ के डर से  उन दिनों हर डांट में सहारा था टोनी कुत्ते का  जो चाटकर गाल सेहला भी देता गले लगा भी देता  किसी थेरपि से कम न था उसका साथ जीवन में  फिर हर सिरे के अंत समान वो भी गया और हम  स्कूल से कॉलेज के द्वार तक पहुंचे जैसे-तैसे  तो सभी को वहीँ पाया और फिर से रेस लगने लगी  वहां से भागे आज यहाँ हैं और आज भी भाग ही रहे हैं  आज सब कुछ तो है मगर बचपन तो बचपन है  उसकी बात...