क्यों न हम जानें प्यार की ज़ुबान


मुझे छूह लेतीं हैं उसकी यादें 
कुछ यूँ जिस तरह हवा में जल 
मेहकाते हुए उन पलों की यादें 
जैसे रेहतीं हैं खुशबु और फूल 
हो न हों अजीब मिलन की यादें 
के सिर्फ यादों से जी लें वो पल 
मानों अब भी हैं साथ उनकी यादें 
जैसे चाँद गगन में बीच में बादल 
खुली आँख इन यादों से लेकिन 
आँखों ने जो बस देखा वो दलदल 
लगे मोर्चे हर तरफ खून-खलबल  
मरने-मारने की धमकियों के बल 
मन हुआ जाता है प्यार से दुर्बल
जो जान से भी प्यारे साथी निर्बल 
आज लगे उगलने नफरत फ़िज़ूल 
क्यों न हम जानें प्यार की ज़ुबान 
है सभी के लिए सहज और सरल 
मिलजुल कर रहना था संस्कार कभी 
आज वोही सीखने आये लेकर ढाल 
धर्म-जाती का अंतर बताकर हाल 
क्यों सीखते नहीं देखकर गुलाल 
कई रंगों से भरे हैं न कोई मलाल 
क्यों इंसान भेद करे अपनों के संग 
मुझे छूह लेतीं हैं उसकी यादें 
कुछ यूँ जिस तरह हवा में जल 
मेहकाते हुए उन पलों की यादें 
जैसे रेहतीं हैं खुशबु और फूल 

~ फ़िज़ा 

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