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Showing posts from December, 2019

क्यों न हम जानें प्यार की ज़ुबान

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मुझे छूह लेतीं हैं उसकी यादें  कुछ यूँ जिस तरह हवा में जल  मेहकाते हुए उन पलों की यादें  जैसे रेहतीं हैं खुशबु और फूल  हो न हों अजीब मिलन की यादें  के सिर्फ यादों से जी लें वो पल  मानों अब भी हैं साथ उनकी यादें  जैसे चाँद गगन में बीच में बादल  खुली आँख इन यादों से लेकिन  आँखों ने जो बस देखा वो दलदल  लगे मोर्चे हर तरफ खून-खलबल   मरने-मारने की धमकियों के बल  मन हुआ जाता है प्यार से दुर्बल जो जान से भी प्यारे साथी निर्बल  आज लगे उगलने नफरत फ़िज़ूल  क्यों न हम जानें प्यार की ज़ुबान  है सभी के लिए सहज और सरल  मिलजुल कर रहना था संस्कार कभी  आज वोही सीखने आये लेकर ढाल  धर्म-जाती का अंतर बताकर हाल  क्यों सीखते नहीं देखकर गुलाल  कई रंगों से भरे हैं न कोई मलाल  क्यों इंसान भेद करे अपनों के संग  मुझे छूह लेतीं हैं उसकी यादें  कुछ यूँ जिस तरह हवा में जल  मेहकाते हुए उन पलों की यादें  जैसे रेहतीं हैं खुशबु और फूल  ...

जाग उठ कहीं बहुत देर न हो जाये

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कौन हैं हम कहाँ से आये हैं  क्या लेकर आये हैं साथ हम  जो आया है वो जायेगा भी  न कुछ तेरा है न ही कुछ मेरा  किस हक़ से मैं लूँ ये जगह  दिया नहीं मुझे किसी ने ये  कौन हूँ मैं तुझे हटाऊँ यहाँ से  जब ये धरती है हर किसी की  न सूरज न चाँद बांटे आसमां  न पेड़-पौधे न पशु-पक्षियां  सभी रहते  मिल-जुलकर  फिर हम इंसान को क्या हुआ ? जो अधिकार जताने लगे यहाँ  धर्म के नाम पर तो देश के नाम  कहाँ से आये कहाँ ले जाएंगे सब  इंसान कब आएगा इंसान के काम  कब वो करेगा एक दूसरे से प्यार  कब वो समझेगा अपनी सीमाएं  इंसान कब करेगा इंसान से प्यार  छोड़कर नफरत की दहशत की  फितरत ये इंसान की अहंकार की   खुद से खुदा हो जाने की ग़लतियाँ  जाग उठ कहीं बहुत देर न हो जाये  के पछताने के लिए भी न रहे समां ! ~ फ़िज़ा 

फिर से बनाते हैं चाहतों का सुरूर यूँही !

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जो चाहा था ज़िन्दगी भर वो मिला नहीं  जो मिला उसी से चाहत पूरी करनी चाही  मगर वो चाहत रखनी भी ठीक लगी नहीं  सोचते रहते हैं उम्र भर क्या करें क्या नहीं  ज़िन्दगी घुमाकर ले आयी फिर उसी डगर  अब जाएं तो जाएं किधर जब वक्त नहीं  समय का पलड़ा है बहुत भारी अभी भी  वक्त है कम, गर साथ दो तो चलो कहीं  फिर से बनाते हैं चाहतों का सुरूर यूँही  चल पड़ेगी हमारी रही-सही हयात वहीँ  ~ फ़िज़ा