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कहने को दूर रहते थे हम...!

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रिश्ता तो वैसे दोस्त का था कहने को दूर रहते थे हम जब मिलते थे कभी साल में करीबी दोस्त हुआ करते थे हम ज़िन्दगी में अपनों से सब कहते या कभी अपना दुःख नहीं जताते माता-पिता को दुःख न हो इस करके तो दोस्त से सब कुछ क्यूंकि समझते थे यही रिश्ता था मेरा इनसे और इनका मुझ से जब जहाँ में वो थे ज़िन्दगी एक थाली में परोसते थे एक-दूसरे को हौसला देकर फिर दोनों खूब हसंते और ज़िन्दगी जीते कहीं एक उम्मीद,आस नज़र आती अब तो दूर-दूर तक का भी पता नहीं साल में दो बार जाऊं देश तब भी मुलाकात की कोई सूरत नहीं किस को सुनाएं अपनी दास्ताँ जिस पे भरोसा करें वो न रहा यादें अक्सर ख़ुशी तो कभी ज़िन्दगी से बोरियत करवाती है ५४ के थे जब वो चले यहाँ से जल्दी में गए वो इस तरह कभी-कभी लगता है जैसे मेरा भी ५४ का वक्त आ रहा है ... ~ फ़िज़ा

दिल में पनपते प्यार के बोल

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कभी कुछ गरजते बादल मंडराते हुए छाए बादल एहसासों के अदल -बदल विचारों में विमर्श का दख़ल असमंजस, उलझनों का खेल रखते हमेशा आसमां से मेल फिर वो भी आये कुछ पल बरसते कारवां लिए बादल   गुद -गुदाहट से भरे हलचल दिल में पनपते प्यार के बोल    बरसना चाहे बादलों से घनघोर हर बूँद एक बोसा भीगे गाल भीगे फ़सानों से लरज़ते बाल मानों डूबकर बरखा है बेहाल हर तरफ से शुक्रगुज़ार बहराल   गरजने से बेहतर बरसते बादल यहाँ दरअसल हैं मुस्कुराते बादल ! ~ फ़िज़ा