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Showing posts from October, 2017

दूसरों के फटेहाल का आनदं ही कुछ और है !

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दुनिया में लोगों के पास वक़्त ही नहीं   औरों के झमेलों में जाने जाया कितना किया ! तमाशा कोई कितना करे या न करे मगर  दुनिया औरों के तमाशे में मज़े खूब लेती है ! अपनी तो हालत है ही निराशाजनक किंतु  दूसरों के फटेहाल का आनदं ही कुछ और है ! कितना हँसोगे औरों के ग़म में यारा तुम  दो आंसूं अपने लिए भी बचाके रखना ! कहते हैं वो औरों से सब जानते हैं हाल हमारा  'फ़िज़ा' को भी पता चले कौन है वो हमारा? ~ फ़िज़ा 

वो शाम याद आती है मुझे ...!

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वो शाम याद आती है मुझे  जब रंगोली से भरा बरामदा  और दीयों की कतार में  रौशनी का हवा से बतियाना  लोगों की चहल-पहल तो  कहीं बच्चों का उल्लास  हर तरफ रौशनी और  हर किसी के मुख में मिठाई  दोनों हाथों में भरा पटाखा  कभी में जलाऊं तो कभी वो  खेलते-खाते गुज़र जाते  छे के छे दिन  आता जब सातवे की सुबह  हर तरफ कागज़ों की  बिछी कालीन  जमा करते सभी एक ओर  लगते उसमें भी आग हलकी सी  जाने कुछ बची हुई लड़ी ही सही  आग सेख़ते -सेख़ते बज उठतीं  यूँही दिवाली को करते अलविदा  मिठाइयों की मिठास से  करते परहेज़ खाने से  फिर देखो थालियों से भरा  मिठाई का डब्बा घर में आ चला  देखते -देखते एक और साल  निकल गया !  ~ फ़िज़ा 

मोहब्बत ही न होता तो मैं कहाँ होता?

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मोहब्बत में मैं नहीं होता तो खुदा होता  मोहब्बत ही न होता तो मैं कहाँ होता? फ़िज़ा में दिन नहीं होता तो क्या होता?  दिन नहीं जब होता तब रात ही होता  दरख़्त में पत्ते,शगोफा, खार तो होता  गर शगोफा होता तो गुल ज़रूर होता  आसमां पर अफ़ताब दिन में ज़रूर होता  शब् पे कोई हो न हो माहताब ज़रूर होता  ज़िन्दगी मसरत नहीं होता गर ग़म न होता  ज़िन्दगी क्या होता गर वफ़ात नहीं होता ? ~ फ़िज़ा   

क्यों? किस लिए? क्या पाया? क्या मिला?

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एक आवाज़ और गोली ने भून दिया  सबको छलनी-छलनी कर दिया  हर तरफ लहू का गलीचा बिछा दिया  चीखते-चिल्लाते, बिलखते बचते-बचाते  सुर्ख़ियों में लरजते कुछ ज़िन्दगियाँ  मरने वाला भी न रहा और मारने वाला भी  जाने कौन देस से था वो हाड़ -मांस का  किस बात की तमन्ना पूरी कर गया यूँ  के बचे लोगों में सवाल बनके रहा गया  क्यों? किस लिए? क्या पाया? क्या मिला? सृष्टि का खेल या दिमागी असमंजस  हैवानियत का एक और प्रदर्शन दूरदर्शन पर था!    ~ फ़िज़ा 

समय-समय की बात है धैर्य, सैय्यम 'फ़िज़ा'

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कोई दूर होने के लिए दूर करता है  कोई अपनी नफरत जताने के लिए !  किसी को नीचा दिखाकर मज़ा आता है   कोई अपना बड्डपन जताकर करता है ! इंसान कहाँ तक जायेगा अहम् लेकर खुद भी जलेगा, सिर्फ खुद ही जलेगा ! रंगमंच पर सभी आते हैं निभाने किरदार   दृश्य भी बदल जायेगा स्थल के अनुसार ! ढूंढो तो जहाँ में क्या नहीं मिल जाता  इंसान को इंसान मिलते लगती नहीं देर! समय-समय की बात है धैर्य, सैय्यम 'फ़िज़ा'  वक़्त आएगा जहाँ में कोई तो होगा अपना वहां !    ~ फ़िज़ा