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Showing posts from September, 2016

काली की शक्ति हूँ तो ममता माँ की!

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जलता तो मेरा भी बदन है  जब सुलगते अरमान मचलते हैं  जब आग की लपटों सा कोई  झुलसकर सामने आता है तब  आग ही निकलता है अंदर से मेरे  सिर्फ एक वस्तु ही नहीं मैं श्रृंगार की  के सजाकर रखोगे अलमारी में  मेरे भी खवाब हैं कुछ करने की  हर किसी को खेलने की नहीं मैं खिलौना  हर किसी के अत्याचार में नहीं है दबना  कदम से कदम बढ़ाना है मेरा हौसला  रखो हाथ आगे गर मंजूर है ये चुनौती  समझना न मुझे कमज़ोर गर हूँ मैं तुमसे छोटी  काली की शक्ति हूँ तो ममता माँ की  रंग बदलते देर नहीं गर तुम जताओ अपनी  मर्दानगी !!! ~ फ़िज़ा 

इंसान !!!

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हादसों के मेले में कुछ यूँ भी हुआ  कुछ लोगों ने मुझे पुकारकर पुछा  कहाँ से हो? किस शहर की हो? नाम से तो लगती हो हिंदुस्तानी  जुबान से कुछ पाकिस्तानी  उपनाम से लगे विदेशी से शादी? कौन हो तुम? और कहाँ से हो तुम? हंसी आगयी नादानी देखकर  फिर थोड़ी दया भी आयी सोचकर  क्या हालात हो गयी है सबकी  बिना धर्म, जाती के जाने  नहीं पहचाने अपनी बिरादरी  क्या में नहीं हूँ इंसान जैसे तुम हो? क्या नहीं हैं मेरे भी वही नैन -ओ- नक्श ? क्या बोली नहीं मैंने तुम्हारी बोली? फिर चाहे वो हो मलयालम, हिंदी, उर्दू  पंजाबी, मराठी, या अंग्रेजी ? इंसान हूँ जब तक रखो आस-पास  रखो दूर हटाकर मुझको जब हो जाऊं  मैं हैवान!!! बंद करो ये ताना -बाना  जाती-भेदभाव का गाना  चोट लगने पर तेरा मेरा  सबका अपना खून एक सा  दुखती रग पे हाथ रखो तब  दोनों आखों में आंसू एक समान सा  फिर कैसा भिन्नता तेरा-मेरा  चाहे हो तुम राम, या रहीम  या फिर हो ब्राहमण या शुद्र  पैदा होने पर कि...

शाम की मदमस्त लेहर

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आशाओं से भरी सेहर  निकल पड़ी जैसे लहर  जाना था मुझे शहर-शहर  खुशियों ने रोक ली पहर  निकल पड़ी करने फिर सफर  घुमते-घुमते होगयी फिर सेहर ! शाम की मदमस्त लेहर  हवा की शुष्क संगीत मधुर  लहराता मेरा मन निरंतर  किरणों की जाती नहर  चहचहाट पंछियों के पर  मानो करे कोई इंतज़ार  घर  पर !! ~ फ़िज़ा 

सुबह की धुंध और हरी घांस की सौंधी खुशबू...!

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सुबह की धुंध और हरी घांस की सौंधी खुशबू  बारिश से भीगी सौंधी मिट्टी की खुशबू  बस आँखें मूँद कहीं दूर निकल जाती हूँ  कुछ क्षण बीताने के बात वक़्त थम सा जाता है  पलकों की ओस जब बूँद बनकर निकल आते हैं  समझो घर लौट आयी ! क्या पंछी भी ऐसा ही महसूस करते हैं ? जब वो एक शहर से दूसरे तो कभी एक देश से दूसरे  निकल पड़ते हैं खानाबदोशों की तरह  यादों के झुण्ड क्या इन्हें भी घेरते हैं कभी? जाने किस देश से आती हैं और जाने किन-किन से रिश्ते  काश पंछी हम भी होते? उड़-उड़ आते जहाँ में फिरते  यादों के बादलों संग हम भी दूर गगन की सैर कर आते  फिर महसूस करते मानो, समझो घर लौट आये !!! ~ फ़िज़ा 

हिंदी दिवस की शुभकामनाएं

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दूर क्षितिज पर निखरा -निखरा  काले-काले अक्षरों जैसा  भैंसों के झुंड को आते देखा  आँखें मल -मल देखूं जैसे  मानो सब जानू मैं ऐसे  किन्तु पढ़ न पाँऊं  ये कैसे   कोस रहा अपने ही किस्मत को  जब दिखा काले अक्षरों में  स्वागत का परचम ! कहता दिवस है हिंदी का आज  लिखो-पढ़ो-कहो कुछ हिंदी में  जब हो अपनी जननी की भाषा  एक दिवस ही क्यों न हो  जिस किनारे भी हो भूमि के  करो याद उन मात्राओं को  उन लफ़्ज़ों को उन अक्षरों को  जिन से कभी मिली मॉफी  तो कभी शाबाशी या फिर  खुशियों की फव्वारों सा  स्नेहपूर्ण आज़ादी जहाँ   निडर बनके केहदी हो  अपने मन की व्यथा-कथा   जय-हिंदी ! ~ फ़िज़ा