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आज़ादी !

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उसकी आँखों से सब बयां था  वो चीख चीख कर कहा रही थीं  आज़ादी आज़ादी चाहिए आज़ादी  हर रीति-रिवाज़ों से,  आज़ादी ! नौकरी और घर की चाकरी से  आज़ादी ! बच्चों से उनकी जिम्मेदारियों से  आज़ादी ! रोज़-रोज़ के बिलों से  आज़ादी ! इस दिल से भी चाहिए  आज़ादी ! सब रिश्तों से भी  आज़ादी ! इंसान न समझे उस समाज से  आज़ादी ! बस हुआ सभी से अब  आज़ादी ! फिर भी उसके हाथ फौलादी  करते रहे परिश्रम आखिर तक  सिर्फ चाहने से कहाँ मिले हैं  आज़ादी? ~ फ़िज़ा 

हिंसा नहीं आवाज़ से विरोध करते हैं !

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सहने को तो लोग यूँ भी दर्द सहते हैं एक हद्द से ज्यादा हो तो काट देते हैं  इलाज़ भी देखिये कभी ऐसा होता है ! जुल्म का आलम देखिए कैसा होता है  सहते तो सब हैं मगर उसकी भी हद्द है  हिंसा नहीं आवाज़ से विरोध करते हैं ! जानें, शासन करने वाला भी इंसान हैं  शासन में लाने वाला भी इंसान ही है  देखिये,एकता में सत्ता पलटने की ताक़त है ! अनपढ़ शासक अन्धविश्वास जैसा है  सच को छुपाना और सब बहकावा है  पढ़े-लिखे बेहके दुःख इसी बात का है ! वक़्त आगया अब एकजुट हो जाना है  खुली आँख है मगर हकीकत दिखाना है  खाली करो सिंहासन जनता को जगाना है ! इंसान बनकर इंसान को शासन करना है  जब शासक ही शोषण करें तो डटना है  निडरता से आज़ादी का नारा लगाना है ! हम देखेंगे किसका पलड़ा अभी भारी है  क्रांति भी क्या इसी विरोध का चेहरा है  अब बहुत हुआ, शासन नए नस्ल की है  नयी सोच से सबका भला होना है ! ~ फ़िज़ा