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ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को !

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ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में  खुद को ! बदल जाती हैं मेरी राहें दूसरों  के सफर में  खुद को भुलाकर उस राह निकल गया मैं  कभी किसी के तो कभी किसी को सफर में  पहुँचाने के बहाने ही सही अपनी राह से हुआ  बेखबर ! ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को ! क्यों मैं भटक जाता हूँ अपने ही सफर से फिर लगता है जैसे मेरा होना शायद है इसी के लिए   किसी के लिए बनो सहारा तो किसी को दो यूँही  हौसला ! ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को ! कहाँ हैं मेरे ख्वाबों का वो कम्बल जिसे पहने  होगये बरसों मगर कभी यूँही हिंडोले लेता हुआ  कभी -कभी कर जाते हैं मेरे होने न होने का ये  एहसास ! ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को ! ~ फ़िज़ा 

जन्मदिन तुम अच्छी रही आज !

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आज का दिन भी बड़ा सुहाना था  हर दिन की तरह प्यार मोहब्बत इन्हीं सब चीज़ों से भरा पड़ा था  कितने ही पन्ने किताबों के पढ़ लो  सफ़ा नयी कहानी नये सिरे से था  दिल किसी अल्हड की तरह फंसा  २०-२१ की उम्र-इ-दराज़ पर और  सफ़ा बड़ी रफ़्तार के संग पलटता  मगर यहाँ किसको पड़ी है जल्दी   हमें तो अल्हड़पन का है नशा अभी  कल जब आये देखेंगे उस कल को आज को दबोचलें बाँहों में कसके   गुज़रते लम्हों को सेहलाते मचलाते  ज़िन्दगी बस यूँही चल गुन -गुनाते  मस्ती में गाते नाचते झूमते इठलाते  फ़िज़ा मस्ती में अभी और महकते  जन्मदिन तुम अच्छी रही आज मुझ से ! ~ फ़िज़ा