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Showing posts from July, 2017

ज़िन्दगी से क्या चाहिए ...

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ज़िन्दगी के धक्कों में  कहीं जवानी और ज़िन्दगी  दोनों खो गयीं उम्र के दायरे में  रहगुज़र करते-करते  ज़िन्दगी से क्या चाहिए  ये भी न जान पाए  वक़्त कठोरता से  बिना रुके चलते रहा  देख के, के कब समझोगे  और हम वहीं सोचते रहे  यादों के काफिलों को  गुज़रते हुए देखते रहे  जब काफिले थम गए  तो याद आया चलो  अपने लिए न सही  किसी और के लिए  जियें! ~ फ़िज़ा 

बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज

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बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज  बहारों का मौसम है यार कहाँ है आज  छुपकर खेलने वाले अब तो न सता यूँ  दिन ढले आ ही जाते हैं पंछी घोसलों में  इंतज़ार की घड़ियाँ यूँही न बढ़ाओ सनम  शाम के बाद रात भी बहुत देर कहाँ होगी  वक़्त को रोक लें चलो आ भी जाओ यहीं  फिर तुम वर्धमान हों या पूरे चाँद के रूप में  संभाल लेंगे वक़्त को तुम आओ तो सही  बहारों का मौसम है चाँद कहाँ है आज  कहाँ है आज? ~ फ़िज़ा 

क्यों वो साथ फ़िज़ा का नहीं ?

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पूछती है मेरे अंदर की सहेली मुझसे  कब तक औरों की ख़ुशी के लिए जिए  जब औरों को भी ऐसा नहीं लगता हो  तो क्यों न अपने मन की ख़ुशी जियें ? दिल कहता है कहीं दूर निकल जाएं छोड़-छाड़ नगरी और यहाँ के लोग  बसर कर अजनबियों के संग ज़िन्दगी  क्या रोक रहा है जो न खुश है कहीं? रोटी-पानी को बिलखता देख आँसू  हर तरफ की मारा-मारी देख उदास  दिल से यही आवाज़ कुछ मैं भी करूँ किसका लहू है रोके मरते को देख? हर तरफ है आशा-निराशा कहीं तो  एक सहारा तो चाहिए जो है उम्मीद  देने वाला चाहे कोई भी क्यों न हो  क्यों वो साथ फ़िज़ा का नहीं ? ~ फ़िज़ा