कब? आखिर कब?
कहना तो बहुत कुछ है मगर हर दिन एक नया मसला है नयी बात नयी उलझन नयी मुश्किलें फिर भी जब तक मैं सोचूं तब तक फिर एक नया मसला नया दिन, नयी परेशानी, नए अत्याचार, नए दंगे नए दुश्मनों के नए तरीकों से सताने के नए तौर-तरीके जितने रंग हैं दुनिया में उतने ही नए सताने के तरीके उतने ही दर्द भरी दस्तानो के पर्चे जो मिलते हैं गली-गली नज़ारे जो कभी सोचने पर करें मजबूर मुझे, मैं हूँ तो क्यों हूँ? और गर हूँ तो क्यों मैं देखती रहूँ ये कब तक हो अन्याय का ये ढेर जो सहे इंसान या फिर जानवर भी क्या है मेरा जो तेरा नहीं और क्या है तेरा जो मेरा नहीं फिर भी मार-मारी है हर बात की जैसे रहना ही नहीं चाहता कोई खुश न देखना चाहे क्या है ख़ुशी चेहरे पर खोखली हो गयीं हैं सारी इंसानियत सारे ढखोसले केवल दिखाने के बातों के, तो कभी फैशन के वास्ते रह गया है सब नाम के वास्ते कब वो भी दिन आये जब करें लोग एक -दू...