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कितना अच्छा होता !!!!!

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मौसम के बदलने से रुत बदलती तो  कितना अच्छा होता  वक़्त के गुजरने से बुरे दिनों को टालदे तो  कितना अच्छा होता  ग़लतियाँ हर किसी से होती है यही समझलेते तो  कितना अच्छा होता  ज़िन्दगी आडम्बरी चीज़ों से बढ़कर भी है जान लेते तो  कितना अच्छा होता  मकान सजाने से घर बन जाता तो  कितना अच्छा होता  काश लोग घर की सजावट की वस्तु जैसे होते तो  कितना अच्छा होता  लोग एक-दूसरे को इंसान ही समझ लेते तो  कितना अच्छा होता  हार-जीत छोड़कर एक छत के नीचे शांति से जी लेते तो  कितना अच्छा होता  कब समझे कोई लेके जाना तो कुछ नहीं फिर तो  क्यों बटोरकर दिखावा करना ? कब समझेंगे गोया, ये तो अब सबको नज़र आता है की  क्या अच्छा है क्या बुरा? कब समझेगा इंसान? काश पूरी होती भूख दिखावे से और हक़ीक़त नज़र आती तो  कितना अच्छा होता  बस... काश सबकुछ कितना अच्छा होता...  गर सबने ये कविता पढ़ कर अपना लिया होता तो...  कितना अच्छा होता !!!!! ~ फ़िज़ा 

सुनी थी एक कहानी...

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बहुत साल पहले  सुनी थी एक कहानी  प्यासा कौवा भटकता  मारा-फिरा पानी के लिए  कहीं दूर जंगल तेहत  एक घड़ा नज़र आया  बड़ी आस से कौवा  पानी की तलाश में  उम्मीद ले पहुंचा  देखा झांकर घड़े में  बहुत कम पानी था  परछाई नज़र आती थी  मगर पानी को चखना  कव्वे के सीमा के बाहर रही  सूझ-बूझ से कव्वे ने  कंकड़ भर-भर के डाले  उन दिनों तो पानी घड़े में  आगया ऊपर श्रम से  मगर अधिक कंकड़ से  पानी की सूरत भी ढकी  रहा जा सकती है  कंकड़ कितना और कब  डालना है इसकी भी  सूझ-बूझ कव्वे को थी  ताना हो या बाना  हर वक़्त काम नहीं आती  और ज्यादा से भी  रास नहीं आती ! ~ फ़िज़ा