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वक्‍त-वक्‍त की बात है

अक्‍सर,सुना जाता है -"घर की मुर्‍गी दाल बराबर" कुछ ऐसी बात को दरशाने की एक कोशिश मात्र... राय की मुँतजि़र... दूर हम कब थे जो पास आकर फासले बना गये प्‍यार की निशानी जो बन के कँवल खिला गये तुमने तो हमें ही भूला दिया उसके हँसने पर रोने, पर जो आ जाती हैं बेचेनियॉ कभी हमसे दूर रेहकर हुआ करतीं थीं ये मदहोशियॉ जब लिखी जातीं थीं कविता तो कभी शेर की पोथियॉ फासले को भरना ठीक समझा प्‍यार की निशानी से अनमोल मोती वो नैनन का अपनी ही माला में पिरोकर सँवर लेते हैं उनके लिये कभी जब याद आयेंगे तब पेहचान होगी हमारी फिर मुलाकातों का सिलसिला तो कभी चाहतों की फरमाइशें वक्‍त-वक्‍त की बात है हम भी थे नैनन का नगिना ~फिजा़