Sunday, September 23, 2018

भेद-भाव का न हो कहीं संगम !






कविता पढ़ने -सुनने की नहीं है
इसे पहनो, पहनाने की ज़रुरत है
वक्त बे वक्त बरसों से ज़माने में हैं
महाकवि से लेकर राष्ट्र कवी तक हैं
देश के नागरिकों को जागरूक करते हैं
वीर रस की कवितायेँ लिखते हैं
इंसान को इंसान होने का एहसास दिलाते हैं
जाग मनुष्य तू किस लिए बना है ?
कीड़े-मकोड़ों सा जी-मरकर चले जाना है?
या अपनी मनुष्य जाती का मूल्य बचाना है ?
अरे! तू जाग अभी, वर्ना बहुत देर हो जाना है
लोगों के आँखों में धूल झोंकने का समां है
पुरानी रीती-रिवाज़ों को लेकर आना है
फिर वही 'बांटों और राज़' करो की भाषा है
हर पीढ़ी हर इंसान भुगत चूका है
हर कमज़ोर हर अनुगामी भुगतरहा है
तुम धैर्य का पथ पकड़ो और सवाल करो
क्यों इंसान - इंसान में भेद-भाव है
क्यों जाती-पाँति का रट आज भी है ?
क्यों धर्म की बातों से अधर्म का काम करते हैं
क्यों इंसानी रिश्तों में खून का रंग भरते हैं
अमन-शान्ति को क्यों नफरत से देखते हैं?
क्यों आखिर, इंसान सोचता नहीं?
क्यों इतिहास हमेशा दोहराता है?
क्यों न तुम आज तमन्नाओं को जगाओ
हर इतिहास को पलट कर नया ज़माना रचाओ
हर कोई इंसान और इंसानियत का हो धर्म
हर किसी के हिस्से में उसकी अपनी रोटी हो
अपना घर हो सबके लिए एक हो नियम
भेद-भाव का न हो कहीं संगम
ऐसा भी एक राष्ट्र हो जो ख्वाबों से उतरकर
आ जाएँ हकीकत में, जीवन के सरोवर में
इंसान कभी तो इंसान बन के जियो !!!

फ़िज़ा

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