Saturday, October 17, 2015

फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?



जो कल तक था वो आज नहीं है 
जो आज है वो कल तक नहीं था 
कल जो होगा वो आज तो नहीं है 
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

इंसान चाहता कुछ है उसे मिलता कुछ है 
उसे जो चाहिए वो मिल भी जाये तो क्या?
वो ज़ाहिर उसे करता नहीं सो खुश हो सकता नहीं 
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

पैदा होते ही नियमों की वस्त्रों में उलझते हैं 
बड़े हों या छोटे हर तरह के नियमों में बंधते हैं 
गृहस्ता आश्रम में चलकर भी डरके रहते हैं 
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

जिसकी शिद्दत करता हैं वो दिल-ओ-जान से 
जिसके बिना जीना है उसका दुश्वार 
उसी को करता याद दिन-रात मगर 
नहीं दिल खोलकर जी सकता है न मरना 
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

जो दीखता है वो होता नहीं 
जो होता है वो दीखता नहीं 
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?
फिर काहे कड़ी से कड़ी जोड़ने की बात है ?

~ फ़िज़ा 

Wednesday, October 14, 2015

एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी...




एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी 
मज़बूरी कहिये या समाज की रीती 
दोनों का ब्याह हुआ मिली दो कड़ी 
चिड़ा था बावला चिड़ी थी नकचढ़ी 
जितना चिड़ा पैर पकड़ता चिड़ी वहीँ पटकती
गुज़रते गए लम्हे कुछ साल यूँ चुलबुलाती 
एक वो भी पल आया जब चिड़ा ने ली अंगड़ाई 
बहार को आते देख चिड़ा ने दी दुहाई 
रंगों की बदलती शाम उसपर ढलती परछाई 
चिड़ी थी अब भी अपनी अकड़ में समायी 
न जानी कब चिड़ा ने फेर दी नज़र हरजाई 
चिड़ा था मस्त सपनो में चिड़ी थी व्यस्त करने में लड़ाई  
तरह-तरह के प्रयोग करने लगी चिड़ी जादुई 
कहाँ चिड़ा आता वो तो जीने लगा ज़िन्दगी ललचाई 
चिड़ी भूल गयी, इस बार गधी पर नहीं परी पर है दिल आई !!!


~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...