Tuesday, August 15, 2006

ज़िंदगी तेरे तो खेल निराले हैं

ये कविता मैंने तब लिखी थी जब लेबन्‌न में लडाई छिङ गई थी । जहॉ बच्‍चों की लाशें गिर रही थीं...और इस तरफ
एक मासूम बच्‍चा अपने पापा की ऊँगलियाँ पकड कर पारकींग लॉट पर चला जा रहा था....

ज़िंदगी तुझ से कोई शिकायत नहीं
क्‍योंकि, तुने वो सब दिया
जो कभी मैंने माँगा नहीं और
जो कभी मैंने चाहा भी नहीं
कितना इंसाफ है तेरी जूस्‍तज़ू में
जो कभी अपना तो क्‍या
पराया भी नहीं जताता
मैं सोच में रेहती हूँ ज़िंदगी
तू मेरा अपना है या पराया?
तू तो हवा का झोंका है
जो कभी ठंडी हवा से
दिल मचला दे तो
कभी तूफान बनकर
खडा हो जाऐ।
ज़िंदगी तेरे तो खेल निराले हैं
तुझे मैं क्‍या कहूँ -
आ देखें तेरी अगली चाल क्‍या है ।?।

~फ़िज़ा

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...